Book Title: Vajjalaggam
Author(s): Jayvallabh, Vishwanath Pathak
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 535
________________ ४६० वज्जालग्ग परन्तु मिट्टी के प्रभाव से बहुत बड़ी ऊंचाई प्राप्त कर लेने पर भी उसके फल अपने नन्हें से बीज के अनुसार बहुत ही छोटे होते हैं। इसी प्रकार जब कोई दरिद्र एवं अकुलीन पुरुष उच्चस्थान (राजसिंहासन) पर पहुँच जाता है, तब स्थान के प्रभाव से उसमें महत्ता तो आ जाती है परन्तु याचकों या सेवकों को मिलने वाला लाभ, उसके दरिद्र पिता के वीर्य के अनुरूप बहुत स्वल्प होता है। अथवा उसके कार्य पिता के वीर्य के अनुरूप ही होते हैं । गाथा क्रमांक ७३९ मउलंतस्स य मुक्का तुज्झ पलासा पलास सउहि । जेण महुमाससमए नियवयणं झत्ति सामलियं ॥ ७३९ ॥ मुकुलयतश्च मुक्तास्तव पलाशाः पलाश शकुनैः येन मधुमाससमये निजवदनं झटिति श्यामलितम् -रत्नदेव-कृत संस्कृत छाया संस्कृत-टीका के आधार पर इसका जो अंग्रेजी अनुवाद किया गया है, उसका हिन्दी रूपान्तर निम्नलिखित है "हे पलाश वृक्ष, जब तुम खिल रहे थे तभी तुम्हारे पत्ते पक्षियों के द्वारा छोड़ दिये गये क्योंकि वसन्त के दिनों में तुमने अपना मुंह काला कर दिया है।" व्याख्यात्मक टिप्पणी में 'सउण' और 'पलासा' के निम्नलिखित अर्थ दिये गये हैं, जिनका उपयोग अनुवाद में नहीं किया गया है : सउण = १-पक्षी २-सगुण पलासा =१-पत्ते २-फलाशा 'पलासा' को 'फलाशा' मान बैठना केवल असत्कल्पना है। वृक्ष या वृक्ष के फलों को पक्षी छोड़ दें-यह तो ठीक है परन्तु पत्तों से उनका क्या अनुराग है ? विशेष सम्बन्ध या प्रीति के अभाव में त्याग का कोई अर्थ नहीं है। 'पलासा' ( पलाश-पत्र ) का लाक्षणिक अर्थ पलाशवृक्ष हो नहीं सकता है। क्योंकि निर्दोष लक्षणा के लिए रूढि या प्रयोजन में से एक का होना आवश्यक है। १. मुख्यार्थवाधे तद्योगे रूढितोऽथप्रयोजनात् । अन्योऽर्थो लक्ष्यते यत् सा लक्षणारोपिता क्रिया ॥ -काव्यप्रकाश, द्वितीय समुल्लास Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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