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वज्जालग्ग
अंग्रेजी अनुवादक ने लिखा है- 'दिन्नसयलपयमग्गो' में कदाचित् मग्ग शब्द का परनिपात हुआ है। अतः उसे 'मग्गदिन्नसयलपओ' (मार्गदत्तसकल पदः) समझना चाहिये । 'मार्गदत्तसकलपदः' का अर्थ इस प्रकार है
"जो मार्ग में पूर्ण एवं समान पद रखता है।"
'अइत्तए दिन्नं' का भाव अस्पष्ट बताया गया है।' रत्नदेव ने इसके अर्थ पर किंचित् प्रकाश डालते हुए लिखा है
. अयि इति आमन्त्रणे दत्तमिति न गणयति ।
श्रीपटवर्धन ने अपनी टिप्पणी में इस व्याख्यावाक्य का भाव अस्पष्ट बताया है। हम विवेच्य गाथा का व्याख्यान करने के पूर्व प्रासंगिक भूमिका को स्पष्ट कर देना आवश्यक समझते हैं । तरुण नायक जब अंधेरी रातों में चोरी-चोरी परकीया नायिका के घर में रमणार्थ जाया करता था, तब रहस्य-भेद के भय से सिकुड़ा-सिकुड़ा-सा रहता था। उसके अंग कभी-कभी भय से काँप उठते थे। प्रायः कुत्तों की शंका बनी रहती थी तथा सुगम एवं दुर्गम, सभी स्थानों पर पैर रखते हुए चलना पड़ता था। आज वह वृद्ध हो चुका है। श्वेत केशों को लजाता हुआ प्रिया के घर नहीं जाता है परन्तु तारुण्य के दिनों में प्रिया के उद्दाम-प्रणय ने जो कुछ सिखा दिया था, अब उन्हीं गुणों का अभ्यास कर रहा है, क्योंकि वृद्धता के कारण अंगों में संकोच ( झुर्रियाँ) उत्पन्न हो गया है और वे काँपने भी लगे हैं ( वृद्धता के कारण )। कुटुम्बियों के प्रति शंका रहने लगी है (ये मेरा धन ले लेना चाहते हैं, इत्यादि सोच कर ) और मार्ग में सचल (लड़खड़ाते) पद रखता हुआ चलता है। कवि ने प्रणय और वार्धक्य के जिन अनुभावों की योजना की है, वे उभयत्र साधारण हैं । शब्दार्थ-संकुइयकंपिरंगो ( संकुचित कम्पनशीलाङ्गः ) = १. भय वश
सिकुड़े या झुके हुए तथा काँपते हुए अंगों वाला
(प्रणय-पक्ष) २. वृद्धता जनित संकोच ( झुरियाँ ) युक्त काँपते हुए अंगों वाला ( वार्धक्य-पक्ष ) । संकोच ( सिकुड़ना) और कम्पन वृद्धता और भय दोनों कारणों से उत्पन्न होते हैं ।
१. वज्जालग्गं ( अंग्रेजी संस्करण ), पृ० ५६८
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