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वज्जालग्ग
गाथा क्रमांक ६४५ मूलाहिंतो साहाण निग्गमो होई समलरुक्खाणं ।
साहाहि मूलबंधो जेहि कओ ते तरू धन्ना ॥ ६४५ ।। ग्रीष्म के प्रकरण में बरगद का वर्णन अप्रासंगिक नहीं है। गाथा में उन वटवृक्षों की प्रशंसा की गई है जो निदाघ-तप्त श्रान्त पथिकों को अपनी शीतल छाया में आश्रय देते हैं । टीकाकार रत्नदेव के अनुसार इसमें ग्रीष्माग्नि का वर्णन है, बरगद का नहीं। उनका आशय इस प्रकार है:
ग्रीष्माग्नि ऐसा वृक्ष है जिसकी शाखायें अन्य वृक्षों के समान मूल से नहीं निकलती हैं, शाखाओं से ही जड़ें फूटतो हैं। ग्रीष्माग्नि का प्राकट्य मूल ( नीचे अर्थात् पृथ्वी) से नहीं होता है। शाखाओं ( सूर्य की रश्मियों) से ही वह पनपती है।
गाथा क्रमांक ६५५ जाणिज्जइ न उ पियमप्पियं पि लोयाण तम्मि हेमंते । सुयणसमागम वग्गी णिच्चं णिच्चं सुहावेइ ॥ ६५५ ॥
प्रो० पटवर्धन इसके पूर्वार्ध एवं उत्तरार्ध में अपेक्षित तार्किक सम्बन्ध नहीं ढूंढ सके हैं । अर्थ इस प्रकार है
उस हेमन्त में लोगों को प्रिय और अप्रिय का भी पता नहीं चलता ( या प्रिय और अप्रिय भी नहीं जाना जाता)। आग सज्जनों के समागम के समान प्रतिदिन सुख देती है।
प्रस्तुत गाथा को दोनों पंक्तियों में समर्थ्य-समर्थक-भाव है। आग अन्य ऋतुओं में अप्रिय होती है । उसके निकट कोई बैठना नहीं चाहता है परन्तु हेमन्त में सब उसी से चिपके रहते हैं । अतः उस समय यह समझना कठित हो जाता है कि लोगों को कौन सी वस्तु प्रिय है और कौन सी अप्रिय । “जाणिज्जइ न उ पियमप्पियंपि" का प्रकारान्तर से भी यही अर्थ समझा जा सकता है
अप्रियमपि प्रियं भवतीति शेषः न तु ज्ञायते । अर्थात् अवाञ्छनीय वस्तु भी वाञ्छनीय बन जाती है, परन्तु पता नहीं चलता है ।
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