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७२*३. “अरे आज मैं पुष्पवती (रजस्वला) हूँ और तुम भी के प्यासे हो रहे हो, ऐसा चूमना कि छू न जाय' कहकर नायिका ने अधर उसकी ओर कर दिया ॥ ३ ॥
चुम्बन
वज्जालग्ग
७२*४. यह गाथा किंचित् पाठ-भेद से ओलुग्गाविया वज्जा में गाथा क्रमांक ४३६ पर आ चुकी है || ४ ||
७२*५. समुद्र की संतरण किया जाता है, प्रज्ज्वलित हुताशन में प्रवेश किया जाता है, मृत्यु का वरण किया जाता -प्रेम के लिये कुछ दुर्लघ्य नहीं है ॥ ५ ॥
७२*६, विदेश जले जाने पर तुम्हारा मुखपंकज भूल गया होगा - यह मत समझ लेना; रिक्त अस्थिपंजर (करंक) ही डोल रहा है, जीव वहीं है, जहाँ तुम हो ॥ ६ ॥
७२*७. घर दुःख देता है, देव मन्दिर दुःख देता है और राजभवन (प्रेमी) के बिना समुद्र से घिरी
भी दुःख ही देता है । अकेली उसी सम्पूर्ण पृथ्वी कष्टमय हो गई है ॥ ७ ॥
७२*८. घनान्धकार में बिजली की कौंध से मार्ग दिखाई देता है । अभिसारिकाओं का प्रेम - मार्ग में क्या है, क्या नहीं ? – यह प्रकाशित कर देता है ॥ ८ ॥
( बिजली की जरा-सी कौंध अँधेरे में मार्ग दिखाने के लिये पर्याप्त है, क्योंकि उन्हें अपने प्रेम से ही मार्ग-दर्शन होता है)
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