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वज्जालग्ग
गाथा क्रमांक ३२८ २४- रेहइ सुरयवसाणे अद्भुक्खित्तो सणेउरो चलणो ।
जिणिऊण कामदेवं समुब्भिया धयवडाय व्व ॥ ३२८ ॥ श्री पटवर्धन ने इसका यह अर्थ किया है:
"रति के अन्त में नायिका का नूपुरयुक्त अर्थोत्क्षिप्त ( आधा ऊपर उठा हुआ) चरण, ऐसा लगता है जैसे कामदेव को जीतकर ध्वजा फहरा दी गई हो।" गाथा पर यह आक्षेप है___ "विजेता ही ध्वज फहराता है (झंडा ऊपर करता है), विजित नहीं। जो दम्पति स्वयं काम के बाणों से परास्त हो चुके हैं, उन्हें विजयी कैसे कहा जा सकता है। विजयी तो वस्तुतः कामदेव ही है और उसे ही अपना झंडा फहराना चाहिये । उपमा का आशय स्पष्ट नहीं है। अतः 'जिणिऊण कामदेवं' के स्थान पर 'जिणिऊण कामदेवे' पाठ रखना उचित है।"
अब प्रश्न यह है कि कवियों की भाषा में जिनकी भृकुटिभंगिमा देखते ही कामदेव के हाथ से धनुष गिर पड़ता है, जिन्हें संयोग से रच कर विधाता भी कृतार्थ हो गया, जिनकी अपरिमित मोहक रूपराशि के समक्ष मुनियों की निश्चल समाधियाँ भी टूट जाती हैं, उन त्रैलोक्य विजयिनी, अनुत्तमलावण्य-मंडित नायिकाओं के पराभव का वर्णन कौन अभागा कवि करेगा ? कामदेव शब्द यहाँ निम्नलिखित अर्थों को प्रकट करता हैकामदेव = १. काम्यदेव, वांछित देवता अर्थात् पति
( काम = काम्य, कामः स्मरेच्छाकाम्येषु अनेकार्थ संग्रह )
२. स्मर अंग्रेजी अनुवादक ने प्रस्तुत गाथा में उपमा का उल्लेख किया है, परन्तु है उत्प्रेक्षा । उत्तरार्ध का अर्थ यह होगा
१. वज्जालग्गं, पृ० ४६१ अंग्रेजी टिप्पणी बारन के बेनी बान्हें पै,
होइ सिखी के कुटि । भृगुटी लखे काम के धनुहाँ,
पर हाथ से छूटि ।। सर्वमंगला
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