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वज्जालग्ग
गई है, अतः व्याकरण के नियम का उल्लंघन है।" यह आक्षेप अनुचित है। गाथा के संस्कृत रूपान्तर का अन्वय इस प्रकार कीजिये-~~~
विचित्रकरणनि जानानोऽपि स ज्योतिषिको दह्यताम् । मे शतवारं गणयित्वा गणयतः धूम उत्तिष्ठति अथवा मे गणयित्वा शतवारं गणयतः धूम उत्तिष्ठति । द्वितीयार्थ की अपेक्षा होने पर उत्तरार्ध का अन्वय इस प्रकार करना पड़ेगा--
शतवारं गणयित्वा गणयतः मे धूम उत्तिष्ठति अथवा गणयित्वा शतवारं गणयतः मे धूम उत्तिष्ठति ।
अष्टाध्यायी की काशिकावृत्ति में उपर्युक्त सूत्रस्थ समानकर्तुकता का भाव स्पष्ट करते हुये आचार्य वामन ने लिखा है___समानकर्तृकयोरिति किम् ? भुक्तवति ब्राह्मणे गच्छति देवदत्तः । अर्थात् समानकर्तृक क्रियाओं में क्तवा प्रत्यय का विधान क्यों किया गया है ? उत्तर यह है कि यदि ऐसा न होता तो 'भुक्तवति ब्राह्मणे गच्छति देवदत्तः-इस वाक्य में भी, जहाँ भोजन और गमन क्रियाओं के कर्ता पृथक्-पृथक् हैं, क्त प्रत्यय की प्रसक्ति हो जाती।
अब इस सन्दर्भ में प्रस्तुत गाथा का अवलोकन कीजिये । हम पूर्वार्ध और उत्तरार्ध को दो स्वतन्त्र वाक्य मानते हैं, क्योंकि एकवाक्यता की प्रकल्पना में तद् शब्द ( सः ) निराकांक्ष रह जायगा और वाक्य दोष होगा' | द्वितीय वाक्य में गणककृत प्रथमगणन-व्यापार शतवारोत्तर-गणन-व्यापार का पूर्ववर्ती है। अथवा शतवार गणन-व्यापार भूयोगणन व्यापार का पूर्ववर्ती है। इन दोनों व्यापारों का कर्ता एक ही गणक है, अतः समानकर्तृकता का अभाव नहीं है। यहाँ पूर्वार्ध और
और उत्तरार्ध के अर्थ-सम्बन्ध का विवेचन कर लेना भी अपरिहार्य है। विविध करणज्ञान ज्यौतिषक का उत्कृष्ट गुण है। अभिप्रेत-गुण-विशिष्ट ज्यौतिषक के भी भस्मी भवन का कथन विशेष हेतु के बिना असंगत है । अतः व्यंजना-व्यापार-द्वारा भूयोभूयोगणन व्यापार की प्रतीति भस्मीभवन-कथन के हेतु-रूप में होती है । इस प्रतीति से ज्यौतिषक और गणक में तादात्म्य स्थापित हो जाता है । इस दृष्टि से भस्मीभवन और भूयोगणन-इस अशेष व्यापार-परम्परा में समान कर्तृकता सिद्ध होती है।
१. काव्यप्रकाश, सप्तम उल्लास
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