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वज्जालग्ग
महार्घता का गुण नहीं आ जाता, अति पवित्रता अवश्य संभव है। यदि कदाचित् कारण विशेष से महार्यता भी आ जाये तो भी अति-महार्घता असंभव है। अतः पत्र-महार्यता का हेतु देवमन्दिरोद्यान-सम्बन्ध अपार्थक है। यदि गाथा में 'पत्त' का अर्थ पत्र (पत्ता) होता तो कवि उसे 'फटने वाला' लिखता 'टूटने वाला' नहीं । यहाँ न तो 'पत्त' का अर्थ पत्र है और न 'संपत्तिया' का अर्थ पिप्पल-पत्र । देशीनाममाला के साक्ष्य पर यदि 'संपत्तिया' का अर्थ बाला सुलभ भले ही हो, प्रायः बाजारों में बिकती नहीं, यदि कभी बिकती भी है तो अल्प मूल्य नहीं होती। अतएव उपर्युक्त व्याख्यायें भ्रामक एवं व्यर्थ हैं। वस्तुतः 'संपत्तिया' एक पद ही नहीं है। भ्रमवश दो भिन्न शब्दों को एक समझ लिया गया है
१. सं = स्वम् २. पत्तिया = पत्तिया = पात्री, पात्री का प्राकृतरूप 'पत्ती' होगा। स्वार्थिक क (य) जोड़ने पर पत्तिया' हो जायगा। स्वम् का अर्थ है-- अपना और पात्री का अर्थ है-थाली । गाथा के पूर्वार्ध का अन्वय निम्नलिखित होगा
सुलहाइ अप्पमुल्लाए पत्तियाइ सं कालं गमेसु ।
( सुलभयाल्पमूल्यया पात्र्या स्वं कालं गमय) 'देउलवाडयपत्तं' का अर्थ राजभवन का पात्र (बर्तन) है । वाडय शब्द यहाँ वाटिका नहीं, भवन के अर्थ में प्रयुक्त है। वज्जालग्ग को भाषा पर अपभ्रंश का प्रभूत प्रभाव है। बहुत सी गाथाओं में अपभ्रंश को विभक्तियों का निःसंकोच प्रयोग किया गया है। अतः हम विवेच्य गाथा को उसी प्रभाव-परिधि में रखते हैं। अपभ्रंश में प्रायः एक स्वर के स्थान पर दूसरा स्वर हो जाता है (स्वराणां स्वराः प्रायोऽपभ्रंशे)। इस रीति से भवन वाचक संस्कृत वादी शब्द प्राकृत में 'वाडी' और अपभ्रंश में वाड हो गया। पुनः स्वार्थिक क प्रत्यय (य) संयुक्त होने पर वही वाडय बन गया है। प्राकृतत्वात् लिंग व्यत्यय के परिणामस्वरूप भी 'वाडी' का 'वाड' होना संभव है। यद्यपि मेदिनी कोश में 'कूटी वास्तुनोः स्त्रियाम्' और हेमचन्द्रकृत अनेकार्थसंग्रह में ‘वाटी वास्तौ गृहोद्यानकुट्यो.' इत्यादि उल्लेखों के साक्ष्य पर कहा जा सकता है कि संस्कृत में स्त्रीलिंग वाटी शब्द ही भवनवाचक है, वाट शब्द नहीं। परन्तु ऐसी बात नहीं है, संस्कृत ग्रन्थकारों ने वाट शब्द का भी भवन के अर्थ में प्रयोग किया है
इत्थं यशोदा तमशेषशेखरं मत्वा सुतं स्नेहनिबद्धधोनूप । हस्ते गृहीत्वा सहराममच्युतं नीत्वा स्ववाट कृतवत्यथोदयम् ॥
-श्रीमद्भागवत महापुराण, १०।११।२०
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