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वज्जालग्ग
ग्राह्य एवं आपाततः तृप्तिकारक बनाने के लिये ही उसे भोजन या गुडादि में मिला दिया जाता है। वस्तुतः भोजन की अनास्वाद्यता या रूक्षता मनस्तोषाभाव का हेतु है। गाथा में उसी का उल्लेख अपेक्षित है। रत्नदेवसूरि ने भोजन-पक्ष में 'विसाहियं' की छाया “विसाधितम्' की है ( वि + साधितम् = अनिष्पन्न, अपरिपक्व या उचित रीति से न बनाया हुआ ) । वही शुद्ध भी है क्योंकि कच्ची ( अधपकी ) रसोई विवशता की स्थिति में भले ही ग्राह्य हो जाय, सन्तोषप्रद नहीं हो सकती है। सूक्ष्मदृष्टि से पर्यालोचन करने पर 'किसिओ' के अन्तराल से भी झाँकते हुये श्लेष की झलक मिलती हैकिसिओ = १. कृशित = दुर्बल
२. कृष्ट = आकर्षित या खिचा हुआ । प्रसंग-किसी उन्मत्त यौवनावल्लवी के अनुपम लावण्य पर विशाखा-प्रेमी कृष्ण को आकृष्ट होते देखकर उसकी ( वल्लवी की ) सहेली की भंगिमा-पूर्ण उक्ति है। ___ अर्थ-कृष्ण, तुम दुर्बल क्यों हो ? अरे मूढ ! तुमने धान्य-संग्रह क्यों नहीं किया ? जो अपरिपक्व ( कच्चा ) भोजन करता है, उसके मन को सन्तोष कैसे मिल सकता है ?
__ शृङ्गार-पक्ष-कृष्ण, तुम आकृष्ट क्यों हो गये ? अरे मूढ ! तुमने सुन्दर रमणी का सम्यक् अधिग्रहण ( सं = सम्यक्, ग्रह = अधिग्रहण या स्वीकार ) क्यों नहीं किया ? जो विशाखा ( एक गोपी ) के साथ संभोग करता है, उसे सन्तोष कैसे मिल सकता है ?
अंग्रेजी टिप्पणी में लिखा है कि विषाधिकम् (विसाहियं ) में विष का अर्थ जल भी हो सकता है परन्तु जलाधिक वस्तु में पेयता का गुण आ जाता है, भोज्यता का नहीं । अतः वह भी अनुपयुक्त है ।
पाणय परुढाइ पेम्माइ -६०३वी गाथा का अन्तिम चरण प्रो० पटवर्धन का आक्षेप है कि यहाँ पणय ( प्रणय ) और पेम्म ( प्रेम ) में पुनरुक्ति दोष है। यह आक्षेप सारहीन है। गाथा में प्रणय का अर्थ विश्वास है, प्रेम नहींप्रणयः प्रश्रये प्रेम्णि याञ्चाविश्रम्भयोरपि
-मेदिनी हम इस वर्णन को पुनरुक्तवदाभास मान सकते हैं। प्रणय-प्ररूढ ( पणय
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