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वज्जालग्ग
कंशंभ्यां बभयुस्तितुतयसः-अष्टाध्यायी, ५।२।१३८
तुन्दिवलिवटेर्भः -अष्टाध्यायी, ५।२।१३८ उपर्युक्त सूत्रों में उल्लिखित भ प्रत्यय ही हिन्दी में हा हो गया है। संस्कृत तुन्दिभ से ही अवधी का तोनिहा शब्द बना है। पालि में भी इस प्रत्यय के अस्तित्व का पूर्ण पता है
तुण्ड्यादीहि भो --मोग्गल्लान व्याकरण, ४।८३ यहां तुण्डिभ ( चोंच वाला) सालिभ (शालि वाला) आदि शब्दों की निष्पत्ति बताई गई है। प्राकृत में तण्हा के अन्त्य स्वर का हस्वादेश करने के पश्चात् हा प्रत्यय का विधान करने पर तण्हा शब्द बनेगा। संस्कृत में उसकी छाया तृष्णावती है । संस्कृत छाया में तृष्णका शब्द चिन्त्य है।
गाथा क्रमांक ६०० किसिओ सि कीस केसव किं न कओ धनसंगहो मूढ । कत्तो मणपरिओसो विसाहियं भुंजमाणस्स ।। ६०० ॥ क्रशितोऽसि कस्मात् केशव किं न कृतो धन्यासंग्रहो ( धान्यसंग्रहः ) मूढ कुतो मनःपरितोषो विशाखिकां (विषाधिकं ) भुखानस्य
-श्रीपटवर्धनसम्मत संस्कृत छाया अंग्रेजी अनुवाद यों है
केशव, क्यों दुर्बल हो ? अरे मूढ ! क्यों तुमने धान्य-संग्रह नहीं किया ? (श्लेषद्वारा-क्यों तुमने सुन्दर रमणियों का संग्रह नहीं किया ? ) जो व्यक्ति हानिप्रद पदार्थ का भोजन करता है (जो वस्तु विषतुल्य हानिकर है ) उसे कैसे मानसिक सन्तोष हो सकता है ? (श्लेष-द्वारा- जो व्यक्ति विशाखा नामक गोपी के साथ संभोग करता है उसे कैसे मानसिक सन्तोष हो सकता है ?)
टिप्पणी में लिखा गया है कि इस गाथा के पूर्वार्ध में प्रश्न और उत्तरार्ध में उसका उत्तर है। यह उल्लेख भ्रमजनित है। पूर्वार्ध में कृशता और धान्यसंग्रहाभाव का हेतु पूछा गया है और उत्तरार्ध में बताया गया है, मानसिकतुप्त्याभाव का हेतु विषाधिक भोजन, जो अपृष्ट-प्रतिवचन होने के कारण उन्मत्त प्रलापवत् है। जिजीविषा रहने पर किसी भी अनुन्मत्त मनस्तृप्तिकामी पुरुष का जान-बूझकर विषाधिक भोजन करना उपपत्ति-रहित एवं असम्भव है । भोजन की विषाधिकता मरण का हेतु है, मनस्तोषाभाव का नहीं। विष को
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