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वज्जालग
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मानविघटनघटमानदेहं हरं नमत-यह संस्कृत छाया वाक्य साकांक्ष है, क्योंकि यस्याः की आकांक्षा पूर्ण करने वाला कोई भी पद नहीं है। 'जिस गौरी का' इस वाक्यांश को सुनते ही 'किस गौरी का ?' यह प्रश्न निसर्गतः समत्थित हो आता है। अतः उस प्रकान्त-प्रश्न का उत्तर बिना दिये अप्रकान्त हर को प्रणाम करने का उपदेश देने के कारण पूर्ववाक्यांश अनर्गल प्रलाप बन कर रह जाता है। 'जिस गौरी के मानविघटन में घटमानदेह हर को प्रणाम करो' यह वाक्य तब तक अपूर्ण एवं अशुद्ध है जब तक 'जिस' की आकांक्षा 'उस' शब्द के विनियोग द्वारा पूर्ण नहीं कर दी जाती।'
वस्तुतः उक्त संस्कृत छाया ही प्रस्तुत गाथा की दुरूहता का मूल निदान है । यदि उस अशुद्ध छाया को निम्नलिखित परिमार्जित स्वरूप दे दें तो साकांक्षत्व दोष की निवृत्ति हो जायगी और आर्थिक क्लिष्टता का भी निराकरण हो जायेगा
चन्द्राधृतप्रतिबिम्बाया (चन्द्राहृतप्रतिबिम्बाया वा) जातिमुक्ताट्टहासभीतायाः गौर्या मानविघटन घटमानदेहं हरं नमत ॥ गाथार्थ-चन्द्राधृतप्रतिबिम्बायाः = चन्द्रेण आधृतं गृहीतं प्रतिबिम्बं यस्याः
अथवा चन्द्रेण आहतं प्रतिबिम्बं यस्याः अर्थात् चन्द्रमा ने जिसके प्रतिबिम्ब को
धारण किया है। जातिमुक्ताट्टहास भीतायाः = जातिरिव मालतीपुष्पमिव मुक्तस्त्यक्तो योऽट्टहास
स्तभाद् भीतायाः अर्थात् चमेली के पुष्प के
समान विकीर्ण अट्टहास से डरी हुई। अंग्रेजी अनुवादक ने प्रतिबिम्ब का अर्थ मुखमण्डल किया है, जो बिलकुल निराधार एवं कपोलकल्पित है ।
प्रसंग-शिव के मुक्ताहास से भीत पार्वती जब शरणार्थ उनके निकट पहुँची तब उन्हें पति के ललाटस्थ चन्द्र में अपनी प्रतिच्छवि दिखाई पड़ी। फिर तो उसे अपनी सपत्नी समझकर तुरन्त हो मानकर बैठीं। प्रस्तुत गाथा में उन्हीं कोपकषायिताक्षी अम्बिका के अनुनय में संलग्न शिव को प्रणाम करने का उपदेश है।
गाथार्थ-जो चमेली के पुष्प के समान ( शिव के ) उन्मुक्त शुभ अट्टहास १. प्रागुपात्तस्तु यच्छब्दस्तच्छब्दोपादानं विना साकांक्षः ।
-काव्यप्रकाश, सप्तम उल्लास
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