________________
३९६
वज्जालग्ग
भो ( अथवा मृत्यु दान का भी ) अर्थात् दवा भी देता है और मार भी
डालता है। २. प्रज्ञप्ति-शास्त्रज्ञ मुनियों के लिये भी पुक्कारय नामक जड़ी का ही प्रयोग करता
है (जैनमुनि सचित्त वनस्पतियों के सेवन से विरत रहते हैं )।
शृङ्गार-पक्ष-दुष्ट गृहपति पुत्र ने अपूर्व विद्या बताई है, जिससे वह पचास (या पाँच) स्त्रियों के लिये भी पुरुषेन्द्रिय (लिंग) का प्रयोग करता है ।
अथवा द्वितीया के निम्नलिखित अर्थ करें-- १. प्रपौत्रियों के लिए भी लिंग का प्रयोग करता है ।
यह किसी ऐसी वृद्धा की उक्ति है जो गृहपति कुमार की गतिविधियों से
असन्तुष्ट है। २: लिंग का प्रयोग भी करता है (भोग) और उपदेश भी देता है ।
गाथा क्रमांक ५१८ विज्जय अन्नं वारं मह जरओ सयरएण पन्नत्तो। जइ तं नेच्छसि दाउं ता किं छासी वि मा होउ ।। ५१८॥ वैद्यान्य वारं ममज्वरः शतरयेण (शतरतेन) प्रज्ञप्तः । यदि तन्नेच्छसि दातुं तत् किं तक्रमपि (षडशीतिरपि) मा भवतु ।।
--रत्नदेवसम्मत संस्कृत छाया __चिकित्सार्थ प्रेमी वैद्य के उपस्थित होने पर कामज्वर-पीडिता नायिका की सव्यंग्योक्ति है। टीकाकार रत्नदेव सूरि के अनुसार श्लिष्ट पदों के अर्थ निम्नलिखित हैंसयरयेण = १. औषधेन
२. शतस्य रतम् छासी = १. तक्रम्
२. षडशीतिः पनत्त' का कुछ भी अर्थ नहीं दिया है । अंग्रेजी अनुवाद में भी उपर्युक्त अर्थों को स्वीकार किया गया है। प्रो० पटवर्धन रत्नदेव की व्याख्या में 'शतस्यरतम्
१. पन्नत्त शब्द के अर्थ के लिये गाथा संख्या ५१२ का अवलोकन कीजिये ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org