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के आधार पर दी गई है। वस्तुतः आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार वि उपसर्ग पूर्वक इन्ध्र धातु के संयुक्त वर्ण 'न्ध' के स्थान पर झ होता है
इन्वी झ: - हेमसूत्र, २८
पुनः द्वित्व ( अनादी शेषादेशयोद्वित्वम् - २ । ८९) एवं पूर्वावस्थित झकार के स्थान पर जकार हो जाने ( द्वितीयतुर्ययोरुपरि पूर्व : - २१९० ) के अनन्तर 'ह्रस्वः संयोगे ' - इस सूत्र से ह्रस्वादेश करने पर विज्झ तथा 'स्वराणां स्वरा:' ( ४|२३८ ) - इस सूत्र से दीर्घत्वविधान करने पर विज्झा क्रिया निष्पन्न होगी, जिसका अर्थ है बुझाना । अतः 'विज्झाइ' की ( तृणाग्निपक्ष में ) हेमचन्द्रसम्मत छाया 'वीन्धे' है । अनेक विद्वान् 'विज्झाइ' की छाया विद्यमाति' करते हैं, जिसे केवल रूपान्तर कहा जा सकता है । 'तं चिय' की, श्री पटवर्धन कृत छाया 'तमेव' स्वीकार करने पर नपुंसक तृण के साथ उसका अन्वय कठिन हो जायगा ।
शब्दार्थ - विध्यापयति ( वीन्धे = बुझा देती है ( तृणाग्नि पक्ष ) विध्यायति = वि + ध्यायति, चिन्तन नहीं करती है, अर्थात् उपेक्षा करती है । यहं वि उपसर्ग अभाव- द्योतक है । ( वेश्या - पक्ष )
एकम्
पलित्त
अवरट्टिय
=
वज्जालग्ग
=
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१- केवलम्
२- श्रेष्ठ – एकोऽन्यः केवलः श्रेष्ठः संख्या कलकोऽघविष्ठयोः - अनेकार्थ संग्रह
१ - प्रदीप्त
२ - प्रलिप्स, पूर्णतया लिप्त या आसक्त ( वेश्या - पक्ष )
१ - अपर स्थित, अन्य में स्थित, ( तृणाग्नि पक्ष )
२ - अवर स्थित, अधम जन में स्थित अर्थात् नीच जनों में आसक्त ( वेश्या-पक्ष )
जाओ पियं पिय पइ = इष्ट-इष्ट के प्रति गया हुआ ( तृणाग्नि पक्ष ) ३ वेश्यापक्ष में इसकी संस्कृत छाया 'जातोऽप्रियं प्रियं प्रति होगी । इसका अर्थ है-अप्रिय प्रेमी के प्रति गया हुआ प्रिय और अप्रिय दोनों के प्रति गया हुआ ।
भावार्थ - जैसे तृण की आग इष्ट-इष्ट ( प्रिय ) तृण के निकट जाती है एवं उस प्रज्ज्वलित मात्र तृण को तुरन्त बुझा देती हैं ( जलते ही बुझा देती है )
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