________________
वज्जालग्ग
मानों सुन्दरी ने पति रूपी कामदेव को जीत कर ध्वजा फहरा दी है । यह अर्थ न करें तो भी उत्प्रेक्षा में साक्षात् कामदेव को जीत लेने की संभावना पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है ।
कामदेव में रूपकातिशयोक्ति मान कर भी अर्थ कर सकते हैं । इससे नायक का सर्वातिशायी लावण्य सूचित होता है । 'जिणिऊण' से नायिका के रतित्व की व्यंजना संभव है क्योंकि उसी के ( रति के ) द्वारा संभोग - समर में कामदेव का परास्त होना उचित है । इस प्रकार गाथा अध्यवसान द्वारा नायक को कामदेव और नायिका को रति के रूप में प्रतिष्ठित करती है ।
गाथा क्रमांक ३३४
दाडिमफलं व पेम्मं एक्के पक्खे य होइ सकसायं । जाव न बीओ रज्जइ ता किं महुरत्तणं कुणइ ॥ ३३४ ॥
रत्नदेव ने इसकी पूरी व्याख्या की है । प्रो० पटवर्धन कदाचित् उसका भाव नहीं समझ सके, फलतः द्वितीय चरण का अंग्रेजी अनुवाद अधूरा रह गया और गाथा की दुरूहता का उल्लेख भी करना पड़ा । उन्होंने केवल 'बीयं' में श्लेष का अस्तित्व स्वीकार किया है परन्तु 'पक्ख' में भी श्लेष है ।
एक्कं मि पक्वं मि = १. एक पक्ष में ( एक ओर ) २. एक पाख में ( पन्द्रह दिनों में )
३७१
पूरा अर्थ इसप्रकार होगा -
जैसे दाडिम फल ( अनार ) जब पन्द्रह दिनों का होता है तब उसका स्वाद कसैला रहता है ।
जब तक बीज लाल नहीं हो जाता तब तक क्या उसमें माधुर्य आता है ? उसी प्रकार जब प्रेम एकपचोय ( नायक और नायिका में से किसी एक में ही स्थित ) रहता है तब कटु होता है। जब तक दूसरा प्रेमी अनुरक्त नहीं हो जाता तब तक क्या उसमें आनन्द आता है ?
गाथा क्रमांक ३६९
जइ वच्चसि वच्च तुमं अंचल गहिओ य कुप्प से कीस ।
पढमं चिय सो मुच्चइ जो जीवइ तुह विओएण || ३६९ ॥
Jain Education International
१. वज्जालग्गं, ( अंग्रेजो संस्करण ) पृ० ४६२
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org