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वज्जालग्ग
गाथा क्रमांक ४१६ तिलयं विलयं विवरीयकंचुयं सेभिन्नसव्वंगं । पडिवयणं अलहंती दुई कलिऊण सा हसिया ॥ ४१६ ।। (तिलकं विलयं विपरीतं कञ्चुकं स्वेदभिन्नं सर्वाङ्गम् । प्रतिवचनमलभमाना दूती कलयित्वा सा हसिता ॥)
-श्रीपटवर्धनसम्मत संस्कृत छाया अंग्रेजी अनुवाद, विवरीय को विवरीयं तथा सेयभिन्न को सेयभिन्नं मान कर किया गया है । इन पदों को लुप्त विभक्तिक मानना आवश्यक नहीं है। 'विवरीयकञ्चुयं' और 'सेयभिन्नसव्वंग' समस्त पद हैं। 'दुई' अवश्य लुप्तविभक्तिक पद है। संस्कृत छाया में दूती के स्थान पर दूतीं होना चाहिये । अंग्रेजी अनुवादक ने पूर्वार्ध में प्रश्न की अनावश्यक प्रकल्पना की है। प्रतिवचन शब्द नायिका के द्वारा पूछे गये प्रश्नों के उत्तर को ओर नहीं, नायक-द्वारा दिये गये उत्तर या सन्देश की ओर इंगित करता है। विलयं की छाया वेबर ने विलयं गतम् को है, जिससे उक्त पद का अर्थ सूचित होता है। प्रो० पटवर्धन को इस शब्द का प्रयोग कुछ अटपटा सा लगता है।' उक्त शब्द की व्याख्या बहुव्रीहि मान कर करेंविलयः = विगतः लयः संश्लेषो यस्य, संश्लेषोऽत संलग्नाता।
अर्थात् जिसको संलग्नता नष्ट हो चुकी है, जो मिट चुका है । गाथार्थ-जिसका तिलक मिट गया था, कंचुकी उलट गयी थी और शरीर पसीने से भर गया था उस दूती को देख कर ( नायक का कोई ) उत्तर ( या सन्देश ) न पाती हुई वह ( नायिका ) हंस पड़ी।
नायिका ने समझ लिया कि दूती नायक से रमण करके लौटो है, इसीलिए तिलक मिट गया है, कंचुको विपरीत हो गई है, शरीर पसीने से तर हो गया है
और मुझे नायक ने क्या सन्देश दिया है-इसे भी उद्विग्नतावश नहीं कह ( या सोच ) पा रही है। अतः उसकी दशा पर नायिका को किंचित् हँसी आ गई। यह हँसी व्यंग्य की है, प्रसन्नता की नहीं।
१. वज्जालग्गं, (अंग्रेजी संस्करण) पृ० ४९० और ३२८ २. लयो विनाशे संश्लेषे साम्ये तौर्यत्रिके मतम् ।
-मेदिनी
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