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इस गाथा के द्वितीय पाद का अनुवाद प्रो० पटवर्धन ने नहीं किया है । उन्होंने लिखा है कि 'मा भणसु मयण न हु भणियं' का कोई संगत अर्थ नहीं निकलता है ।' संस्कृत टीकाकार ने भी उसे उद्धृत कर अव्याख्यात ही छोड़ दिया है । हम अर्थ - सौकर्य के लिये द्वितीय पाद का निम्नलिखित अन्वय करते हैं
वज्जालग्ग
(हे ) मदन ! मा भण, न खलु भणितं मयेति शेषः । अर्थात् हे मदन, मत बोलो, क्या मैंने तुमसे नहीं कहा ?
भण का सामान्य अर्थ बोलना है। बोलना झगड़े के लिए भी हो सकता है । खेलता हुआ बालक प्रायः रूठ कर अपने साथी से कहता है- 'मुझसे बोलना मत, नहीं तो बहुत बुरा हो जायेगा' । इस दृष्टि से गाथा का निम्नलिखित अर्थ होगाहे मदन ! मुझसे मत बोलो, क्या मैंने तुमको बताया नहीं कि प्रिय-वियोग से संतप्त मेरे हृदय पर यदि पुष्प बाण छोड़ोगे तो वे दग्ध हो जायेंगे ।
गाथा क्रमांक ३९७
सच्चं अणंग कोयंडवावडो सरपहुत्तलक्खो सि । तरुणीचलंतलोयणपुरओ जइ कुणसि संधाणं ॥ ३९७ ॥
शरप्रभूतलक्ष्योऽसि ।
यदि करोषि सन्धानम् || )
( सत्यमनङ्ग तरुणीचल्लोचनपुरतो
भावार्थ - अरे अनंग ! यदि तरुणियों के चपल नयनों के सम्मुख बाण-सन्धान करो तो जानें कि तुम सच्चे कोदण्ड धारी ( धनुर्धर ) हो और तुम्हारा निशाना कभी नहीं चूकता |
कोदण्डव्यापृतः
इस अर्थ पर श्री पटवर्धन का आक्षेप है कि जब सर्वदा तरुण और तरुणी दोनों समान रूप से काम बाणों के लक्ष्य बनते हैं तब इस कथन का कोई अर्थ नहीं रह जाता कि 'यदि तरुणियों के चपल नयनों के समक्ष शर-सन्धान करो तो..... इत्यादि ! कामदेव तो सदैव तरुणों के साथ तरुणियों को लक्ष्य बनाता रहता है।
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यह आक्षेप अनुचित है। गाया में अनंग, पुरतः और कोदण्डव्यापृत शब्द अर्थ-विशेष के अभिव्यंजक हैं । अनंग से काम के निरवयवत्व एवं अदृश्यत्व की प्रतीति के साथ-साथ कोदण्ड व्यावृति में अश्रद्धा ( अविश्वास ) ध्वनित होती
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१. वज्जालग्गं, अंग्रेजी टिप्पणी, पृ० ४८५ । २. वही, पृ० ४८६-४८७ ।
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