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३४९*८. दुर्जन का हृदय कुलाल (कुम्हार) के भाण्ड (बर्तन) के समान टूट जाने पर नहीं जुड़ता, परन्तु सज्जनों का हृदय कंचन- कलश के समान शतखण्ड हो जाने पर भी जुड़ जाता है ॥ ८ ॥
वज्जालग्ग
३४९*९. सोने के कंकण, नूपुर और नगर टूट जाने पर पुनः जुड़ जाते हैं, परन्तु प्रेम और विशुद्ध मुक्ताफल टूट जाने पर फिर नहीं ते ॥ ९ ॥
*३४९* १०. श्यामांगि ! ऐसा कोई नहीं दिखाई देता, जो टूटे प्रेम को फिर जोड़ सके । टूटा हुआ घड़ा फिर उन्हीं साँचों में नहीं आता ।। १० ।।
माण- वज्जा
३६४*१. दाँतों में तृण और गले में छोटा सा कलश - यही तुझे उचित है । अरी मान और गर्व से नाचने वाली ! तुझे मान किसने सिखा दिया ? ॥ १ ॥
३६४* २. उस मनस्विनी ने कुछ ऐसा मान का विस्तार कर दिया, कि उसका प्रेमी अब केवल कुशल-क्षेम और संभाषण का पात्र रह गया है ॥ २ ॥
पवसिय वज्जा
३७३*१. जो विरहाग्नि के ताप में तप चुके हैं, इन प्रवासियों के अंगों पर वर्षा की रात्रि में जब पहली बूँदें पड़ती हैं, तो छनछना कर रह जाती हैं ॥ १ ॥
* विशेष विवरण परिशिष्ट 'ख' में देखिये ।
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