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वज्जालग्ग
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गाथा की प्रकृति को देखते हुए कुत्तों और खलों के निम्नलिखित दोनों विशेषणों में श्लेष का अस्तित्व स्वीकार करना चाहिये :
१. बहुकूडकवडभरियाणं (बहुकूटकपटभृतानाम्) २. निव्वत्तियकज्जपरंमुहाण (निर्वतितकार्यपराङ्मुखानाम्)
टीकाकारों ने द्वितीय विशेषण के दोनों पक्षों में दो अर्थ दिये हैं। प्रथम विशेषण को व्याख्या केवल खल-पक्ष में की है। यदि मूल प्राकृत की वैकल्पिक छाया 'बहुकूटकवटभृतानाम्' करें तो यहाँ भी श्वान-पक्षोय अर्थ उभरने के कारण श्लेष झलक उठेगा । इस पद की व्याख्या यों करनी होगी :____ बहुकूटे बहुतुच्छे कवटे कुत्सितनगरे भूतानां पुष्टानाम् अर्थात् बहुत से तुच्छजनों वाले कुत्सितनगर में पले। कूट का यह अर्थ मेदिनी कोश से इस प्रकार समथित है :
कूटोऽस्त्री निश्चले राशौ लौहमुद्गर-दंभयोः ।
मायाद्रिशृङ्गयोस्तुच्छे...... __ यदि कूट का अर्थ कूड़ा करें तो यह अर्थ होगा-अति कड़ों वाले क्षुद्र नगर में पले । कुत्ते प्रायः घूरों या कूड़ों पर घूमते दिखाई देते हैं। संस्कृत कूट से ही हिन्दी का कूड़ा शब्द सम्बन्धित है । पालि महावग्ग में जीवक की उत्पत्ति के प्रसंग में संकार-कूट शब्द का प्रयोग है। विसुद्धिमग्ग के द्वितीय परिच्छेद में भी संकार-कूट आया है। उक्त दोनों स्थलों पर संकार का अर्थ है-झाडू लगाने से पुजीभूत धूल या गन्दगी । लगता है, प्रारम्भ में संकार और कूट-दोनों शब्द साथ-साथ प्रयोग में आते थे। धीरे-धीरे कालान्तर में संकार की सन्निधि में रह कर राशि वाचक कूट शब्द कूड़े या बुहारन के अर्थ में रूढ़ हो गया। इस आलोक में गाथा का यह अर्थ होगा :
__ कार्य (मैथुन) समाप्त हो जाने पर जो अपना मुह फेर लेते हैं और जिनका पोषण तुच्छजनों से पूर्ण क्षुद्र नगर में होता है (या जो बहुत से कूड़ों वाले क्षुद्र नगर में पलते हैं) उन कुत्तों के समान बहु छल-छद्म-पूर्ण एवं अपना कार्य समाप्त हो जाने पर मुह फेर लेने वाले खलों के सम्मुख विश्वासपूर्वक मत जाओ।
गाथा क्रमांक ७० सगुणाण णिग्गुणाण य गरुया पालंति जंजि पडिवन्नं । पेच्छह वसहेण समं हरेण वोलाविओ अप्पा ॥ ७० ॥
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