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गाथा में वर्णित 'प्रिय का वियोग बिना मरे नहीं भूलता' इस तथ्य पर निम्नलिखित टिप्पणी की गई है
वज्जालग्ग
" द्वितीयार्ध में वर्णित तथ्य पूर्णतया ठीक नहीं है क्योंकि विरहियों की विरहवेदना केवल मरने पर भूलती हो ऐसी बात नहीं है, प्रणयी के मिलन से भी भूल जाती है ( पृ० ४५४ ) ।" यह टिप्पणी उचित नहीं हैं । प्रणय की पराकाष्ठा में जब कभी अकस्मात् असह्य वियोग उपस्थित हो जाता है तब कालान्तर में संयोग होने पर व्यथा तो शान्त हो जाती है परन्तु उस असह्य विरह-क्लेशानुभूति की अभीष्ट स्मृतियाँ आजीवन नहीं भूलती हैं हैं | गाथा में वीसरइ शब्द है, सम्मइ शब्द नहीं । का शमन मात्र सम्भव है, विस्मरण नहीं ।
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वे तो मरने पर ही भूलती संयोग होने पर विरह-वेदना
गाथा क्रमांक २४४
छप्पय गमेसु कालं वासवकुसुमाइ ताव मा मुयसु । मन्न जियंतो पेच्छसि पउरा रिद्धी वसंतस्स ॥ २४४ ॥
गाथा में प्रयुक्त वासव शब्द पर टिप्पणी करते हुए श्री पटवर्धन ने लिखा है कि यह शब्द-कोशों में नहीं मिलता हैं । सम्भवतः इन्द्रवारुणी ही वासव हो । संस्कृत टीका में वासव का अर्थ आटरूषक दिया गया है । इस सम्बन्ध में उन्होंने मूनियर विलियम और आप्टे का प्रमाण देते हुए लिखा है कि आटरूषक या अटरूषक एक लाभकारी औषधि का पौधा है । इस प्रकार उन्हें संस्कृत कोशों में वासव शब्द नहीं मिला । अतः उन्होंने उस शब्द का अर्थ टीका में आये आटरूषक के आधार पर संशय ग्रस्त मन से लिखा है ।
वासव शब्द वस्तुतः संस्कृत वासक का विकृत रूप है । वासक और आटरूषक समानार्थक शब्द हैं । अमरकोश में दोनों का एक साथ उल्लेख है
वृषोsटरूपः सिंहास्यो वासको वाजिदन्तकः । -द्वितीय काण्ड,
वासक या आटरूषक को हिन्दी में अरूसा कहते हैं ।
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गाथा क्रमांक २४९
वोसट्ट बहल परिमल केयइ मयरंदवासियंगस्स । हिय इच्छिय पियलंभा चिरा सयाकस्स जायंति ॥ १४९ ॥
वनौषधिवर्ग
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