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वज्जालग्ग
एक बार बहुपरिमला प्रफुल्ल केतकी के मकरन्द से जिसके अंग सुवासित हो चुके हैं, ऐसे किस भ्रमर ( या युवक ) को चिरकाल में मनोवांछित प्रियाओं ( कलिकाओं, लताओं या तरुणियों ) की उपलब्धियाँ सदा होती हैं ? अर्थात् सदा नहीं होती।
अंग्रेजी अनुवादक ने समुद्धृत गाथा के अन्तिम अंश का अर्थ निम्नलिखित ढंग से समझाया है:
"चिरात् सदा कस्य जायन्ते Means अचिरादेव जायन्ते ।" इसके अनुसार उक्त विशेषण विशिष्ट भ्रमर को शीघ्र ही मनोवांछित प्रियाओं की प्राप्ति हो जाती है। परन्तु इस व्याख्या से गाथा में वर्णित भ्रमर या युवक के विशेषणों की साभिप्रायता समाप्त हो जाती है, क्योंकि केतकी-मकरन्द-वासितांगत्व प्रिया प्राप्ति का हेतु नहीं है । यदि होता तो किसी भी भ्रमर या युवक को प्रेय का अभाव न रहता । विवेच्य गाथा के चतुर्थपाद के अन्वय-भेद एवं विभिन्न शब्दों पर विवक्षानुसार अधिक बल देने से अनेक अर्थों की अभिव्यक्ति संभव है:१. चिरात् सदा कस्य जायन्ते ?
(चिरकाल में सदा किस को होती है ? अर्थात् किसी को भी नहीं होती ) २. कस्य सदा चिरात् जायन्ते ?
(किस को सदा चिरकाल में होती है ? अर्थात् शीघ्र हो जाती है । ) ३. कस्य चिरात् सदा जायन्ते ?
(किसको चिरकाल में सदा होती है ? अर्थात् कभी-कभी ही होती है । ) ४. कस्य सदाचिरात् जायन्ते ?
(किस को सदाचिरकाल में होती है ? अर्थात् कभी-कभी ही चिरकाल में होती है।) ५. कस्य चिरात् सदा जायन्ते ?
(किस को चिरकाल में सदा होती है ? अर्थात् चिरकाल में सदा सब को नहीं होती हैं ।)
यदि 'प्रियलंभ का अर्थ प्रिय वस्तुओं की प्राप्ति' करें तो भी भावोत्कर्ष में कमी न होगी। ___मैंने उपर्युक्त अर्थों के मध्य से तृतीय को ही ग्रहण किया है। उसके अनुसार 'चिरात् सदा कस्य जायन्ते' का अभिप्राय यह है कि यद्यपि चिरकाल में प्रियप्राप्ति संभव है तथापि कौन ऐसा विरही प्राणी है, जिसे बहुत दिन व्यतीत हो जाने पर प्रिय की प्राप्ति सदा हो ही जाती ? किसी-किसी को दुर्भाग्यवश नहीं भी होती है।
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