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वज्जालग्ग
३२७ ४५४*३. नेत्र मुझे उस (प्रेमी) के पास ले जाते हैं, तो ले जायँ, अरे हृदय ! तुम्हारा यहाँ क्या काम है ? ये (नेत्र) तो किनारे हो जायेंगे, कामदेव के तमाचे (थप्पड़) तो तुम पर पड़ेंगे ॥ ३ ॥
४५४*४. हे मुग्धे ! मृगलोचने ! आँखें पोंछ डालो, प्रतिदिन रोओ मत, उसका अनुराग छोड़ दो, क्या पंचमराग मर कर गाया जाता है ?
४५४*५. इन्दीवर नेत्रे ! सौ बार मना करने पर उस व्यक्ति को क्यों चाहती हो? यदि सोने की छूरी हो, तो क्या उससे अपनी हत्या की जाती है ? ॥ ५ ॥
सुघरिणीवज्जा ४६२*१. जो दूसरे के घर जाने के लिए आलस करने वाली बन जाती है, जो पर-पुरुष को देखने के लिये जन्मान्ध हो जाती है और जो परायी बात के लिए बहरी हो जाती है, वह घर की लक्ष्मी है, गृहिणी नहीं
४६२*२. आज ही प्रिय प्रवासी हुए हैं, दूर व्यभिचारिणी स्त्री रहती है और कामदेव उपहास कर रहा है। चरणों से उठो आग कभी भी शिर पर चढ़ सकती है ॥२॥
सईवज्जा ४७१*१. जिनके मन-रूपी कंज-कोष में पहुँच कर बेचारा मदनरूपी भ्रमर वहीं मर जाता है, उन कुलांगनाओं का मंगल हो ॥ १ ॥
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