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वज्जालग्ग
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गाथा क्रमांक १० सालंकाराहि सलक्खणाहि अन्नन्नरायरसियाहि ।
गाहाहि पणइणीहि य खिजइ चित्तं अइंतीहिं ॥१०॥ टीकाकारों ने शिलष्ट पदों के अर्थ इस प्रकार दिये हैं:राय - राग, Emotion, अइंतीहि = In the absence of, ( उभयपक्ष)
-श्री पटवर्धन राय = राग =प्रीति ( केवल प्रणयिनी-पक्ष में ), अइंतीहि = अनागच्छन्तीभिः
-श्री रत्नदेवसूरि 'रसिय' का रसिक और रसित अर्थ दोनों टीकाकारों ने समान रूप से किया है। उपर्युक्त व्याख्याओं में उभयपक्षीय श्लेष का निर्वाह नहीं हो सका है। अतः श्लिष्ट-पदों को इस प्रकार समझें:--
राय = १--संगीतशास्त्र प्रतिपादित राग या स्वर' ( गाथापक्ष ) ।
२-रात ( प्रणयिनी-पक्ष ) अइंतीहि = १-न आती हुई ( प्रणयिनी-पक्ष )
२-- समझ में न आती हुई ( गाथापक्ष ) 'रसिय' का अर्थ पूर्ववत् है तथा 'राय' का रत्नदेव-सम्मत अर्थ 'प्रीति' भी नायिका-पक्ष में स्वीकार्य है ।
गाथार्थ-जैसे आभूषणों से मंडित, सुलक्षणों वाली (सामुद्रिकशास्त्रणित लक्षणों से युक्त ) तथा अन्य-अन्य रातों में रसयुक्त ( या प्रेम के रस को समझने वाली ) प्रेयसियों के (प्रतीक्षा करने पर भी) न आने पर चित्त दुःखी हो जाता है वैसे ही जब उपमादि अलंकारों से अलंकृत, व्याकरणप्रतिपादित लक्षणों से युक्त और विभिन्न रागों ( संगीत-स्वरों) में रसित ( ध्वनित ) होनेवाली गाथायें समझ में नहीं आती हैं, तब मन दुःखी हो जाता है।
गाथा क्रमांक २० रयणुजल-पय-सोहं तं कव्वं जं तवेइ पडिवक्खं । पुरिसायंत-विलासिणि-रसणादामं मिव रसंतं ॥२०॥
१. ........."रागस्तु मात्सर्ये लोहितादिषु ।
क्लेशादावनुरागे च गान्धारादी नृपेऽपि च ॥ --मेदिनीकोश २. पाइयसद्दमहण्णव
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