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________________ वज्जालग्ग ३४७ गाथा क्रमांक १० सालंकाराहि सलक्खणाहि अन्नन्नरायरसियाहि । गाहाहि पणइणीहि य खिजइ चित्तं अइंतीहिं ॥१०॥ टीकाकारों ने शिलष्ट पदों के अर्थ इस प्रकार दिये हैं:राय - राग, Emotion, अइंतीहि = In the absence of, ( उभयपक्ष) -श्री पटवर्धन राय = राग =प्रीति ( केवल प्रणयिनी-पक्ष में ), अइंतीहि = अनागच्छन्तीभिः -श्री रत्नदेवसूरि 'रसिय' का रसिक और रसित अर्थ दोनों टीकाकारों ने समान रूप से किया है। उपर्युक्त व्याख्याओं में उभयपक्षीय श्लेष का निर्वाह नहीं हो सका है। अतः श्लिष्ट-पदों को इस प्रकार समझें:-- राय = १--संगीतशास्त्र प्रतिपादित राग या स्वर' ( गाथापक्ष ) । २-रात ( प्रणयिनी-पक्ष ) अइंतीहि = १-न आती हुई ( प्रणयिनी-पक्ष ) २-- समझ में न आती हुई ( गाथापक्ष ) 'रसिय' का अर्थ पूर्ववत् है तथा 'राय' का रत्नदेव-सम्मत अर्थ 'प्रीति' भी नायिका-पक्ष में स्वीकार्य है । गाथार्थ-जैसे आभूषणों से मंडित, सुलक्षणों वाली (सामुद्रिकशास्त्रणित लक्षणों से युक्त ) तथा अन्य-अन्य रातों में रसयुक्त ( या प्रेम के रस को समझने वाली ) प्रेयसियों के (प्रतीक्षा करने पर भी) न आने पर चित्त दुःखी हो जाता है वैसे ही जब उपमादि अलंकारों से अलंकृत, व्याकरणप्रतिपादित लक्षणों से युक्त और विभिन्न रागों ( संगीत-स्वरों) में रसित ( ध्वनित ) होनेवाली गाथायें समझ में नहीं आती हैं, तब मन दुःखी हो जाता है। गाथा क्रमांक २० रयणुजल-पय-सोहं तं कव्वं जं तवेइ पडिवक्खं । पुरिसायंत-विलासिणि-रसणादामं मिव रसंतं ॥२०॥ १. ........."रागस्तु मात्सर्ये लोहितादिषु । क्लेशादावनुरागे च गान्धारादी नृपेऽपि च ॥ --मेदिनीकोश २. पाइयसद्दमहण्णव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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