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वज्जालग्ग
रचनोज्ज्वल (रत्नोज्ज्वल)-पदशोभं तत् काव्यं यत् तापयति प्रतिवक्षः (प्रतिपक्षम्) । पुरुषायमाण-विलासिनी-रशनादामेव रसान्तम् (रसत्) ।
प्रो० पटवर्धन ने 'पडिवक्खं' में श्लेष मानकर काव्य एवं रशनादाम के पक्ष में निम्नलिखित अर्थ दिये हैं:पडिवक्खं = १-प्रतिवक्षः = प्रत्येक हृदय को
२-प्रतिपक्षः = Opponent in the सुरत-संगर । the male partner in coitus.
गाथा में सुरत पर संगर का आरोप न होने के कारण उक्त अर्थ आयासजनित है। अकारण प्रेमी ( नायक ) को प्रतिपक्ष ( विरोधो ) मानना प्रणय के साथ अन्याय है। ऐसे स्थलों पर उक्त शब्द का अर्थ सपत्नी ( Rival wife) ही उचित है । अन्य कवियों ने इसी अर्थ में इसका प्रयोग किया है:
पियमुहपीउबरियं थोवं थोवं चिरेण कावि पिया । अमयं व पियइ सरसं सरोसपडिवक्खसच्चवियं ॥
-कौतूहलकृत लीलावई, १२७३ उपर्युक्त संस्कृतच्छाया को देखते हुये 'पडिवक्ख' में श्लेष मानना बहुत अधिक आवश्यक नहीं है क्योंकि काव्यपक्ष में तापयति क्रिया प्रतिवक्ष के साथ उचितरूप से अन्वित नहीं हो पाती है । यदि 'पडिवक्खं' में श्लेष का रहना अधिक आवश्यक समझें तो 'जं तवेइ पडिवक्ख' की छाया यों करनी होगी:१-यत् तापयति प्रतिपक्षम् ( रशना दाम पक्ष )
( जो सौतों को संतप्त करता है ) २-यत् स्तौति प्रतिवक्षः ( काव्य पक्ष )
(प्रत्येक हृदय जिसकी प्रशंसा ( स्तुति ) करता है ) प्राकृत में स्तव शब्द के दो रूप होते हैं--थव और तव (स्तवे वा-है० सू० २।४६)। प्राकृत सर्वस्व ( सूत्र ६७ ) के अनुसार 'तव' थुण ( स्तुतिकरना ) के अर्थ में होता है।
गाथा क्रमांक ४६ पडिवजति न सुयणा अह पडिवजंति कह वि दुक्खेहि । पत्थर-रेहव्व समा मरणे वि न अन्नहा होइ ॥४६॥
१. सम्पूर्ण गाथा का अर्थ हिन्दी अनुवाद में देखिये ।
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