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वज्जालग्ग
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प्रतिपद्यन्ते न सुजना अथ प्रतिपद्यन्ते कथमपि दुःखैः ।
प्रस्तर-रेखेव समा मरणेऽपि नान्यथा भवति ॥ रत्नदेव ने 'पत्थर रेहव्व समा' की व्याख्या 'प्रस्तररेखासमा' की है। प्रो० पटवर्धन ने उक्त अंश पर टिप्पणी करते हुए लिखा है :
"This is a clumsy expression used in the sense of पत्थररेहाइ समा (प्रस्तररेखया समा)".
और पूर्वार्ध में निम्नलिखित संशोधन की सम्मति दी है :
We should expect न अन्नहा हुंति for न अन्नहा होइ, the subject being सुयणा (Plural).
परन्तु न तो पत्थररेहव्व समा को पत्थररेहाइ समा समझने की आवश्यकता है और न सुयणा से अन्वित करने के लिए अन्नहा होइ को अन्नहा हुँति करने की । गाथा का अर्थ इस प्रकार है :
सुजन अंगीकार नहीं करते हैं, यदि किसी प्रकार बड़ी कठिनाई से (मुह से) अंगीकार भी कर लेते हैं तो वह (अंगीकार) पाषाण रेखावत् समान (एक जैसा) रहता है, प्राणों पर संकट आ जाने पर भी कभी अन्यथा (अन्य प्रकार का) नहीं होता। (जैसे पाषाण-रेखा सभी कालों और सभी परिस्थितियों में एक सी बनी रहती है वैसे ही सज्जनों की प्रतिपत्ति भी सर्वदा अपरिवर्तित होती है)।
गाथा में समा शब्द औपम्य वाचक नहीं, धर्म वाचक है।
गाथा क्रमांक ५० थद्धो वंकग्गीवो अवंचियो विसमदिट्ठि-दुप्पेच्छो । अहिणव-रिद्धि व्व खलो सूलादिन्नु व्व पडिहाइ ॥ ५० ॥ स्तब्धो वक्रग्रीवोऽवाञ्चितो विषमदृष्टिदुष्प्रेक्ष्यः ।
अभिनवद्धिरिव खलः शूलादत्त इव प्रतिभाति ॥ गाथा में प्रयुक्त विशेषणों, “वंकग्गीव' और 'अवंचिय' की आलोचना इन शब्दों में की गई है
The epithets वक्रग्रीव and अवाञ्चित hold good in the case of a शूलादत्तं or शूलाभिन्न person, who hangs down from the pale in a lifeless and limp manner.
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