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________________ ३५० वज्जालग्ग But it is difficult to see how they can go with either a खल or an अभिनवऋद्धिक person. परन्तु ऐसी कोई कठिनाई नहीं है, जिसके कारण उक्त दोनों विशेषणों का अन्वय उक्त दोनों उपमानों से न हो सके । कवि ने तीन वस्तुओं की समानता तुल्य विशेषणों से प्रदर्शित कर अपनी प्रकाण्ड प्रतिभा एवं भाषा पर अपने असाधारण अधिकार का परिचय दिया है । गाया का अर्थ इस प्रकार होगा : जिसको ग्रीवा (गर्व से) वक्र रहती है, (भयानक दृष्टि के कारण) जिसे देखना कठिन है, वंचित न होने वाला (कभी धोखा न खाने वाला) वह अभिमानी (स्तब्ध = थद्ध-दे० पाइयसहमहण्णव) खल, शूलपोत (शूलीपर चढ़ाये हुए) मनुष्य और अभिनव धनी के समान प्रतीत होता है। शूल-प्रोत निष्प्राण मनुष्य की ग्रीवा स्वभावतः अकड़ जाती है। वह निश्चेष्ट (थद्ध = स्तब्ध) हो जाता है और लटकता रहता है (अवञ्चित)। मृत्यु के पश्चात् बाहर निकली हुई आँखों के कारण उसकी दृष्टि विषम हो जाती है और भयानकता के कारण उसे देखना कठिन हो जाता है। नवीन धनी अभिमानी (स्तब्ध) होता है, अकड़ कर चलता है, अतः उसकी ग्रीवा भी टेढ़ो रहती है, वह सुन्दर पदार्थों से रहित (वंचित) नहीं रहता, सबको समान दृष्टि से नहीं देखता (विषमदृष्टि) और अदर्शनीय (अभव्य) होता है। गाथा क्रमांक ५३ निद्धम्मो गुणरहिओठाणविमुक्को य लोहसंभूओ। विधइ जणस्स हिययं पिसुणो बाणु व लग्गंतो ।। ५३ ।। _निधम्मो-संस्कृत-टीका में इस शब्द का अर्थ धनुर्मुक्त लिखा है। पउमचरिउ में भी इसी अर्थ में यह शब्द प्रयुक्त है। पाइयसहमहण्णव के अनुसार इसका एक अर्थ 'एक दिशा में जानेवाला' भी है। गाथा क्रमांक ५७ परविवरलद्धलक्खे चित्तलए भीसणे जमलजीहे । वंकपरिसक्किरे गोणसे व्व पिसुणे सुहं कत्तो ।। ५७ ।। परविवरलब्धलक्ष्ये चलचित्ते (चित्रले) भोषणे यमलजिह्वे । वक्रगमनशीले गोनस इव पिशुने सुखं कुतः ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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