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वज्जालग्ग
'जगद् वल्लभ' होगा । जगद्वल्लभ का अर्थ है-लोकप्रिय (जगतः लोकस्य वल्लभः प्रियः जगद्वल्लभः, प्राकृते जयवल्लहो)। यह शब्द ग्रन्थ का नाम नहीं, वज्जालग्ग का विशेषण है। इसी विशेषण की दृढ़ता या स्वीकृति के लिये नाम का प्रयोग किया गया है। इस आलोक में प्रस्तुत गाथा का हिन्दी अनुवाद इस प्रकार होगा
"विविध कवियों द्वारा रची हुई गाथाओं से श्रेष्ठ गाथाओं का समूह चुन कर निश्चय ही लोकप्रिय वज्जालग्ग की रचना विधिपूर्वक की गई है।
यहाँ एक बात हम स्पष्ट बता देना चाहते हैं कि ग्रन्थकार ने प्रस्तुत गाथा में मुद्रालंकार के माध्यम से अपने नाम की सूचना दी है। कवियों के द्वारा अपने नाम की इस प्रकार सूचना देने की यह कोई नवीन पद्धति नहीं है । प्राचीन काल में यह सांकेतिक पद्धति खूब प्रचलित थी । विमलसूरि ने 'पउमचरिय' की सन्धियों के अन्त में इसी पद्धति से अपने नाम की ओर इगित किया है
एवं विहा उहयसे ढिगया महन्ता आहार-पाण-सयणासण-संपउत्ता। विज्जाहरा अणुहवंति सुहं समिद्धं, धम्म करिति विमलं च जिणोवइटुं ।
-तृतीय सन्धि, गा० १६२ इसी प्रकार अपभ्रंश महाकवि स्वयंभूदेव ने भी 'पउमचरिउ' की सन्धियों के अन्त में अपना नाम सूचित किया है
रिसउ वि गउ णिव्वाणहो सासयथाणहो, भरहु वि णिन्वुइ पत्तउ । अक्ककित्ति थिउ उज्झहे दणुदुग्गेज्झहे, रज्जु सइंभुञ्जन्तउ ।।
-विज्जाहरकंड, सं० ४ उपर्युक्त उद्धरणों में विमल और सइंभु शब्द प्राकरणिक अर्थ में अन्वित रहने पर भी क्रमशः कवि विमलसूरि और स्वयंभू की सूचना देते हैं। इसी प्रकार 'वज्जालग्ग' की उक्त गाथा में भी जयवल्लह शब्द यद्यपि मुख्यतया विशेषण के रूप में ही प्रतिबद्ध है तथापि उसका प्रयोग ग्रन्थकार ने जान-बूझ कर अपने नाम की सूचना देने के लिये किया है । 'जयवल्लहं नाम' से 'जयवल्लभो नाम कविः'यह सूच्यार्थ सूचित होता है। सूचना देना ही मुद्रालंकार का प्रयोजन हैसूच्यार्थ सूचनं मुद्रा प्रकृतार्थपरैः पदैः
-कुवलयानन्द १. देखिये प्राकृत ग्रन्थ परिषद् से प्रकाशित वज्जालग्गं की अंग्रेजी भूमिका,
पृ० १२
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