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वज्जालग्ग
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इस अर्थ के सम्बन्ध में यह कहना है कि सुभाषित की उपादेयता उसके स्वरूप में ही निहित है। सज्जनों से सुभाषित का सम्बन्ध अनिवार्य नहीं है । दुर्जनों को भी सुभाषित ग्राह्य होते हैं । अतः इस रूप में सुजन शब्द को कोई सार्थकता नहीं रह जाती है।
। प्राकृत व्याकरण के अनुसार चतुर्थी के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग विहित है
चतुर्थ्याः षष्ठी-प्राकृत प्रकाश
अतएव यदि हम 'सुयणाण' की छाया 'सुजनेभ्यः' कर लें तो सुजन शब्द सार्थक हो जायगा, क्योंकि सुभाषित सुजन ग्राह्य ही होता है, दुर्जनग्राह्य नहीं । साथ ही ग्रन्थारम्भ में 'सुभाषित' से विषय, 'सुजन' से अधिकारी, 'धर्मादि' पद से प्रयोजन और 'वक्ष्यामि' से प्रतिपादकता की प्रतीति होने लगेगी। अथवा 'सुयणाण' और 'सुहासिय' को समस्तपद मानकर चतुर्थ-पाद की छाया इस प्रकार करें--
श्रुतज्ञानसुभाषितं वक्ष्यामि । अर्थात् श्रुतज्ञान रूप सुभाषित का वर्णन करूँगा।
इस प्रकार श्रुतज्ञान-रूप सुभाषित के वर्णन के पूर्व श्रुतदेवी को प्रणाम करना अन्वर्थ होगा।
गाथा क्रमांक (३) विविहकइविरइयाणं गाहाणं वरकुलाणि घेत्तूण ।
रइयं वज्जालग्गं विहिणा जयवल्लहं नाम ॥३॥ इस गाथा में प्रयुक्त नाम शब्द को अभिधानार्थक समझकर टीकाकारों ने यह असत्कल्पना की है कि वज्जालग्ग का अन्य नाम 'जयवल्लभ' है। इस कल्पना का उद्गम रत्नदेव का निम्नलिखित वाक्य है
जयवल्लभं नाम प्राकृतकाव्यमिति-तृतीय गाथा की टीका
उपर्युक्त साक्ष्य पर प्रो० माधव वासुदेव पटवर्धन ने यह स्वीकार किया है कि 'वज्जालग्ग' ग्रन्थ का सामान्य नाम है और 'जयवल्लभ' विशेष' । अतः उक्त साक्ष्य की प्रामाणिकता का विवेचन आवश्यक है।
रत्नदेव-प्रणीत छायाटीका के अवलोकन से प्रतीत होता है कि टीकाकार व्याख्येय ग्रन्थ के नाम के सम्बन्ध में संशयालु हैं । लगता है, जैसे वे 'वज्जालग्ग' १. 'वज्जालग्गं' की भूमिका, पृ० १२ ।
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