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वज्जालग्ग
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४३८*२. बालक ! तुम्हारे विरह में दुःख को भी दुःख हआ और जब तुमने त्याग दिया, तब आँसू भी रो पड़े और आहें भी आह भरने लगीं ॥२॥
४३८*३. बालक मैं दूती नहीं हूँ, तुम उसके प्रिय हो, अतः मेरा कोई प्रयत्न नहीं है ! वह मर रहो है, तुम्हें अपयश होगा-इसलिए धर्म के वचन कह रही हूँ ॥३॥
४३८*४. सुभग ! जिसके शरीर को निःश्वासों ने सुखा डाला है, उस श्यामलांगी को तभी तक आश्वासन देना चाहिये, जब तक उसको साँसें बन्द नहीं हो जातीं ॥ ४ ॥
४३८*५. सुभग ! दूसरे के नगर में प्रवेश करने को कला तुमने कहाँ से सोख लो, जो प्रथम दर्शन में हो मेरे हृदय में प्रविष्ट हो गये ? ॥५॥
पंथियवज्जा ४४५*१. जैसे-जैसे वह तृषित पथिक, जिसकी आँखें ऊपर लगी थीं और जिसका अंजलि को अंगुलियाँ परस्पर सटी हुई नहीं थी-पानी पीने में देर कर रहा था, वैसे-वैसे पानो पिलाने वाली भी पतली धार को और पतली करती जा रही थी ॥ १ ॥
४४५*२. अरे धृष्ट बटोही ! प्रवास मत करो। तुम्हारे प्रवास से क्या लाभ है ? अभिनव मेवों को गर्जना और मयूरों का कल-कल (कोलाहल) सुन कर तुम मर जाओगे ॥२॥
१. देखिये, गा० ४३८
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