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________________ वज्जालग्ग ३२३ ४३८*२. बालक ! तुम्हारे विरह में दुःख को भी दुःख हआ और जब तुमने त्याग दिया, तब आँसू भी रो पड़े और आहें भी आह भरने लगीं ॥२॥ ४३८*३. बालक मैं दूती नहीं हूँ, तुम उसके प्रिय हो, अतः मेरा कोई प्रयत्न नहीं है ! वह मर रहो है, तुम्हें अपयश होगा-इसलिए धर्म के वचन कह रही हूँ ॥३॥ ४३८*४. सुभग ! जिसके शरीर को निःश्वासों ने सुखा डाला है, उस श्यामलांगी को तभी तक आश्वासन देना चाहिये, जब तक उसको साँसें बन्द नहीं हो जातीं ॥ ४ ॥ ४३८*५. सुभग ! दूसरे के नगर में प्रवेश करने को कला तुमने कहाँ से सोख लो, जो प्रथम दर्शन में हो मेरे हृदय में प्रविष्ट हो गये ? ॥५॥ पंथियवज्जा ४४५*१. जैसे-जैसे वह तृषित पथिक, जिसकी आँखें ऊपर लगी थीं और जिसका अंजलि को अंगुलियाँ परस्पर सटी हुई नहीं थी-पानी पीने में देर कर रहा था, वैसे-वैसे पानो पिलाने वाली भी पतली धार को और पतली करती जा रही थी ॥ १ ॥ ४४५*२. अरे धृष्ट बटोही ! प्रवास मत करो। तुम्हारे प्रवास से क्या लाभ है ? अभिनव मेवों को गर्जना और मयूरों का कल-कल (कोलाहल) सुन कर तुम मर जाओगे ॥२॥ १. देखिये, गा० ४३८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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