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________________ ३१५ ३४९*८. दुर्जन का हृदय कुलाल (कुम्हार) के भाण्ड (बर्तन) के समान टूट जाने पर नहीं जुड़ता, परन्तु सज्जनों का हृदय कंचन- कलश के समान शतखण्ड हो जाने पर भी जुड़ जाता है ॥ ८ ॥ वज्जालग्ग ३४९*९. सोने के कंकण, नूपुर और नगर टूट जाने पर पुनः जुड़ जाते हैं, परन्तु प्रेम और विशुद्ध मुक्ताफल टूट जाने पर फिर नहीं ते ॥ ९ ॥ *३४९* १०. श्यामांगि ! ऐसा कोई नहीं दिखाई देता, जो टूटे प्रेम को फिर जोड़ सके । टूटा हुआ घड़ा फिर उन्हीं साँचों में नहीं आता ।। १० ।। माण- वज्जा ३६४*१. दाँतों में तृण और गले में छोटा सा कलश - यही तुझे उचित है । अरी मान और गर्व से नाचने वाली ! तुझे मान किसने सिखा दिया ? ॥ १ ॥ ३६४* २. उस मनस्विनी ने कुछ ऐसा मान का विस्तार कर दिया, कि उसका प्रेमी अब केवल कुशल-क्षेम और संभाषण का पात्र रह गया है ॥ २ ॥ पवसिय वज्जा ३७३*१. जो विरहाग्नि के ताप में तप चुके हैं, इन प्रवासियों के अंगों पर वर्षा की रात्रि में जब पहली बूँदें पड़ती हैं, तो छनछना कर रह जाती हैं ॥ १ ॥ * विशेष विवरण परिशिष्ट 'ख' में देखिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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