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________________ २८३ ७२*३. “अरे आज मैं पुष्पवती (रजस्वला) हूँ और तुम भी के प्यासे हो रहे हो, ऐसा चूमना कि छू न जाय' कहकर नायिका ने अधर उसकी ओर कर दिया ॥ ३ ॥ चुम्बन वज्जालग्ग ७२*४. यह गाथा किंचित् पाठ-भेद से ओलुग्गाविया वज्जा में गाथा क्रमांक ४३६ पर आ चुकी है || ४ || ७२*५. समुद्र की संतरण किया जाता है, प्रज्ज्वलित हुताशन में प्रवेश किया जाता है, मृत्यु का वरण किया जाता -प्रेम के लिये कुछ दुर्लघ्य नहीं है ॥ ५ ॥ ७२*६, विदेश जले जाने पर तुम्हारा मुखपंकज भूल गया होगा - यह मत समझ लेना; रिक्त अस्थिपंजर (करंक) ही डोल रहा है, जीव वहीं है, जहाँ तुम हो ॥ ६ ॥ ७२*७. घर दुःख देता है, देव मन्दिर दुःख देता है और राजभवन (प्रेमी) के बिना समुद्र से घिरी भी दुःख ही देता है । अकेली उसी सम्पूर्ण पृथ्वी कष्टमय हो गई है ॥ ७ ॥ ७२*८. घनान्धकार में बिजली की कौंध से मार्ग दिखाई देता है । अभिसारिकाओं का प्रेम - मार्ग में क्या है, क्या नहीं ? – यह प्रकाशित कर देता है ॥ ८ ॥ ( बिजली की जरा-सी कौंध अँधेरे में मार्ग दिखाने के लिये पर्याप्त है, क्योंकि उन्हें अपने प्रेम से ही मार्ग-दर्शन होता है) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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