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वज्जालग्ग
लावण्णवज्जा
३१८* १.
यहाँ जघनों पर, यहाँ मुखकमल पर और यहाँ कठिन विस्तृत स्तन - पृष्ठ पर मानों युवती का लावण्य गुच्छों-गुच्छों में फला है ॥ १ ॥
३१८* २. नव यौवन पर आरूढ़ होने पर नववधू को मेखलायें और दूसरी- दूसरी कंचुकियाँ पहनने के लिये थीं ॥ २ ॥
३०९
( यौवन की उत्तरोत्तर वृद्धि के कारण कटि सतत क्षीण होती जा रही थी, अतः जो भी मेखला पहनती थी, वही थोड़ी देर के पश्चात् ढोली पड़ जाती थी और पयोधरों की निरन्तर वृद्धि के कारण प्रत्येक कंचुकी कुछ ही क्षणों में छोटी पड़ जाती थी । संस्कृत टीकाकार के अनुसार सुरत के अन्त में जैसे ही नायिका कंचुकी और मेखला पहनती थी, वैसे ही पति उन्हें उतार देता था ।)
३१८*३.
मदनाग्नि से संतप्त होकर भीतर ही भीतर खौलता हुआ, उस बाला का सुवर्णच्छवि-लावण्य मानों पयोधर भार के व्याज से उफन कर बह रहा है || ३॥
दूसरी - दूसरी नहीं अँटती
३१८* ४. जिसका मध्य भाग कृश है, वह सुन्दरो स्तनों के भार से सहसा टूट न जाय - इसलिए विधाता ने रोमावलि का स्तम्भ ( खंभा ) लगा दिया है ॥ ४ ॥
*
३१८*५. अरे चन्द्र ! बाला के कपोल के सौन्दर्य से पराजित होकर खिन्न क्यों होते हो? गर्व मत करो । पृथ्वी बहुत से रत्नों से विभूषित है ॥ ५ ॥
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*३१८*६. वह बाला बिजौरे की नवीन लता के समान लावण्य की निधि है । सुदूर डाली पर पकी इमली जैसे दर्शकों के मुँह में लार उत्पन्न कर देती है, उसी प्रकार वह भी हृदय में लोभ (अनुराग) उत्पन्न कर देती है ॥ ६ ॥
विशेष विवरण परिशिष्ट 'ख' में देखिये ।
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