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वज्जालग्ग
२७९ सज्जणवज्जा ४८*१. सज्जन दाक्षिण्य का समुद्र है, वह क्षुब्ध होता है, कटु नहीं बोलता, दोष नहीं ग्रहण करता, गुणों को प्रकाशित करता है और रूठने वालों पर भी नहीं रूठता ॥१॥
४८*२. सजन को जितना दुःख होता है, उतना सुख नहीं, क्योंकि वह जिसे-जिसे दुःखी देखता है, उसी-उसी के लिये शोक करने लगता है॥२॥
४८*३. सज्जन स्पष्टतया (या सचमुच) अपने कार्य से विमुख होकर परकार्य में निरत रहते हैं। चन्द्रमा पृथ्वी को धवलित करता रहता है, अपना कलंक नहीं पोंछता ।। ३ ॥
- ४८*४. जो सत्यवचन का उच्चारण करते हैं, अंगीकृत का पालन करते हैं, जो गुरुभार वहन करते रहते हैं और प्रसन्न-मुख रहते हैं, वे धैर्यवान् सज्जन चिरायु हों ।। ४ ॥
४८*५. यह गाथा धीरवज्जा में गाथा क्रमांक ९४ में किंचित् पाठभेद के साथ आ चुकी है ॥ ५ ॥
दुज्जणवज्जा ६१*१. वह घर नहीं, वह मन्दिर नहीं और वह राजकुल नहीं, जहाँ अकारण कुपित होने वाले दो-तीन दुष्ट न दिखाई दें ॥१॥
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