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वज्जालन्ग
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३५२. हे दयिते (प्रिये) ! प्रसन्न हो जाओ (या पसीज जाओ), मान त्याग कर परितोष कर लो, अब प्रभात-कालिक कुक्कुट का स्वर सुनाई दे रहा है ॥ ३॥
३५३. जिसके वियोग में नींद चली जाती है, शरीर पीला पड़ जाता है और लम्बी साँसें लेनी पड़ती हैं, उसके साथ मान कैसा ? ॥४॥
३५४. हे पुत्रि ! जब यौवन नदी के प्रवाह के समान है, दिन नित्य गतिशील हैं और रातें फिर नहीं लौटती, तब फिर यह दग्ध मान किस लिये करती हो? ॥ ५ ॥
३५५. जिससे मान किया जाता है, वह प्रिय कहाँ से हो सकता है अथवा जिससे प्रेम है, उससे मान ही कैसा ? मानिनि ! एक ही खम्भे में दो हाथी नहीं बाँधे जाते ॥ ६ ॥
३५६. मानिनि ! मान छोड़ दो। यद्यपि तुम्हारा स्वामी भली प्रकार तुम से प्रेम करता है, फिर भी आवश्यकता वश ढेकुली ही झुकती है, कुआँ नहीं झुकता है ॥ ७ ॥
३५७. मुग्धे ! वसन्त-मास में मान का अवलम्बन कर मर जाओगी। मान फिर कर लेना, उत्सव के दिन दुर्लभ हैं ।। ८ ॥
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