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वज्जालग्ग
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७२-जरावज्जा (जरा-पद्धति) ६५९. तभी तक धन और ऋद्धि है, तभी तक सुन्दरता है और संसार में तभी तक विदग्धता है, जब तक तरुणियों को कटु लगने वाले श्वेत-केश नहीं हैं ।। १ ।।
६६०. जब तरुणियों की आँखें श्वेत बालों वाले शिर पर पड़ती हैं, तब जैसा लगता है, वैसा न तो लोगों के कटाक्ष करने पर अनुभव होता है, और न व्यंग्यपूर्ण वचनों से ।। २ ॥
६६१. धलि-धवल गाँव के बीच में हम इच्छा भर रमण करते रहे (खेलते रहे) और शैशव के दिनों को बुढ़ापे का दिन बना दिया ॥ ३ ॥
*६६२. नायिका की वृद्धावस्था में उसकी सहेली कह रही है कि अरी! देख, तेरा पुराना प्रणयी तेरे दिये हुए गुणों का अभ्यास कर रहा है। यौवन में उत्कट प्रणयावेग से तेरे गृह में रमणार्थ आने पर जो सिकुड़ासिकुड़ा-सा रहता था एवं जिसके अङ्ग भी कठिन परिस्थिति में काँप उठते थे, जो कुत्तों से डरता रहता था (कि कहीं भुंकने न लगें) तथा सभी (सुगम या दुर्गम) स्थानों पर मार्ग बनाया करता था (क्योंकि प्रणयी दुर्गम स्थानों में भी राह हूँढ़ लेता है); वही वृद्धावस्था में श्वेत बालों से लजाता हुआ, तेरे दिये हुए (सिखाये हुए) गुणों का अभ्यास कर रहा है, क्योंकि अब अङ्गों में झुर्रियाँ (सिकुड़न) पड़ गई हैं और वे काँपने लगे हैं, उसे अपने कुटुम्बियों पर शंका होने लगो है तथा मार्ग में लड़खड़ाता-पैर रखता है ॥ ४॥
*६६३. देखो काम हो जिसका दिव्य भोजन है (या जो काम का दिव्य भक्षक है), वह निष्ठुर-हृदय वार्धक्य रूपी ज्वरराज,सखी के अंग को सिकोड़ रहा है (उन में झुर्रियाँ पड़ रही हैं या वे झुकते जा रहे हैं)। इस समय भी कामदेव उस (सखी) की सेवा कर रहा है ।
६६४. जरा (वृद्धावस्था) ने कानों के निकट स्थित होकर (श्वेत बालों के रूप में) मानों इष्ट कर्तव्य का उपदेश दिया है-"विषय त्यागो, दुष्कर्म छोड़ो, अपने मन में धर्म धारण करो ॥ ६ ॥
* विस्तृत विवरण परिशिष्ट 'ख' में द्रष्टव्य ।
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