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वज्जालग्ग
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७२९. परशु के छेदन और प्रहार से और पत्थर पर रगड़ने से भी तुमने अपनी प्रकृति नहीं छोड़ी । चन्दन ! इसी से संसार मस्तक झुका कर तुम्हारी वन्दना करता है।
*७३०. हे चन्दन ! वृक्षों के मध्य में तुम्हारा सुजन्म उत्तम कूल में हुआ है, तभी तो जिनके दो जिह्वायें हैं और जो दुष्ट हैं, उन (सर्पो) पर नित्य अनुरक्त रहते हो ?
(यहाँ 'उत्तम कुल' के द्वारा चन्दन पर व्यंग्य किया गया है)
७३१. उस प्रकार के (नाना गुण-मण्डित) चन्दन में एक ही विधि-विरचित दोष है कि दुष्ट भुजंग क्षणभर भी उसका साथ नहीं छोड़ते ॥४॥
७३२. जैसे असाधु के संग से निरपराध साधु कष्ट पाते हैं, वैसे ही भुजंगों के दोष से बहुत से वृक्षों के मध्य में निरपराध चन्दन काटा जाता है ॥ ५॥
(सों को देख कर लोग चन्दन को आसानी से पहचान लेते हैं)
८५-वडवज्जा (वट-पद्धति) ७३३. हे महावृक्ष ! तुम मार्ग में क्यों जनमे ? यदि जनमे ही तो फले क्यों ? और यदि फले तो अब पक्षियों की विडम्बना सहो ॥१॥
७३४. हे वटवृक्ष ! यदि तुम न होते, तो शुष्क करील, तीक्ष्ण खैर और विषम शमी से भरे इस मरुस्थल में पथिकों की क्या गति होती ! ॥२॥
* विशेष विवरण परिशिष्ट 'ख' में द्रष्टव्य ।
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