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वज्जालग्ग
२७१ ७८९. जिसमें लम्बाई न हो, विस्तार (चौड़ाई) में छोटा हो, शिला पर धोने से जिसका रंग चला गया हो, (फीका हो गया हो) वह वस्त्र मुझे नहीं सुहाता। उसे दूर नर्मदा के तट पर छोड़ दो (जो नाटा हो, दुबला-पतला हो, जो शील एवं कान्ति से शून्य हो, वह पुरुष मुझे नहीं सुहाता) ॥२॥
७९०. दौषिक (वस्त्र-विक्रेता) ! जो श्रेष्ठ सूत्रों से बुना है, अस्थियों को सुखदायक है, हृदय में अनुराग और शरीर में पुलक उत्पन्न करने वाला है, वह वस्त्र दिये जाने पर भी यदि रंग-हीन है, तो मुझे नहीं रुचता (जो पुरुष सुभाषी, शरीर को सुखद, प्रेम एवं पुलक उत्पन्न करने वाला है, वह यदि नीरस है तो मुझे पसन्द नहीं है) ॥ ३ ॥
७९१. दौषिक ! क्यों विचार करते हो ? जो धोने पर चमके, बड़ा हो, टिकाऊ हो और बहुमूल्य हो, वही वस्त्र मुझे दो ! (जिसका मुँह धोने पर सुन्दर लगे, जो महान् हो, जो सुरत में समर्थ एवं दुर्लभ (महार्थ) हो, वह पुरुष मुझे बिना विचारे दो)॥ ४ ॥
७९२. दौषिक ! कष्ट मत दो (या कष्ट मत करो), जो घने सूतों के कारण श्रेष्ठ हो, अच्छे ढंग से बुना हो, सुन्दर हो, शोभाजनक हो, वही वस्त्र दिखाओ, वही मुझे सन्तोष देता है (जो अनेक गुणों से श्रेष्ठ हो, विनम्र हो, सुन्दर हो और शोभा उत्पन्न करने वाला हो, वही पति मुझे दो ॥ ५ ॥
७९३. जो शाटक (वस्त्र विशेष, साड़ी) पहले दिन पहनने पर जैसा लगता है, वैसा हो अन्त में लगता है, वह सचमुच मेरे नितम्बों पर फट जाने पर भी अच्छा लगता है (सदा एक रस पुरुष ही मुझे पसन्द
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