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बज्जालग्ग
२६१ ७५९. समुद्र में असंख्य श्वेत शंख उत्पन्न हुये हैं, परन्तु उनमें वह गम्भीर ध्वनि नहीं, जो पाञ्चजन्य में है ॥ १४ ॥
७६०. हे समुद्र ! जिसके लिये याचक होकर विष्णु ने भी अपना हाथ फैलाया, उस शंख (पाञ्चजन्य) के उत्पन्न होने से तुम यशस्वी हो गये ॥ १५ ॥
९०-समुद्दणिदावज्जा (समुद्रनिन्दा-पद्धति) ७६१. हे तरंगिणीनाथ (समुद्र)! अमृत और रत्न तुम्हारे अधिकार में हैं, फिर भी जगत् को अमर' और धनी नहीं बना देते ! क्या तुम उल्लसित होने वाली इन लहरों से लज्जित नहीं होते ? ॥ १॥
___७६२. अरे रत्नाकर-नामधारी समुद्र ! तुम सूख क्यों नहीं गये, क्योंकि धन-लोलुप पोतवाही वणिक् तुम्हारे मध्य से होकर उस पार चले गये (तुम्हारे रत्न लेने के लिए क्षण भर भी नहीं रुके) ॥२॥
७६३. अरे लहरों से गवित रहने वाले समुद्र ! बहुत गरजते हुये तुम शुष्क क्यों न हो गये, क्योंकि ग्रीष्म में प्यासे पथिक भी तुम्हारे निकट से मुँह फेर कर लौट जाते हैं ।। ३ ।।
७६४. सागर ! लाज से मर क्यों न गये ? चिन्ता से उदास क्यों न हो गये ? तुम्हारे रहते पोत-यात्रियों को पानी का अन्य संग्रह करना पड़ा ॥ ४ ॥
१. संस्कृत टोकाकार ने यहाँ अमर का अर्थ देवता किया है जो ठोक
नहीं है।
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