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*६८३. (अनुकूल अवसर और उचित स्थान पर) ग्रहण किये गये और छोड़ दिये गये सामादि उपाय राजाओं के प्रभाव को उत्पन्न करते हैं। दण्ड उसी प्रकार स्थित रह जाता है (अर्थात् उसका प्रयोग ही नहीं होता); तेज ही शत्रु को आमूल नष्ट कर देता है, जैसे धनुर्दण्ड अपने स्थान पर ही रहता है, परन्तु उसको टंकार (ज्या शब्द) ही शत्रुओं को मूलसमेत मार डालती है ॥ ६ ॥
६८४. समुद्र वडवानल को बुझाना चाहता है और वडवानल समुद्र को सुखा डालना चाहता है। वडवानल नहीं समझता कि मैं अपार समुद्र में प्रज्वलित हूँ (क्योंकि उसे असीम समुद्र की अपार जल-राशि से कुछ भी भय नहीं है) और समुद्र भी यह ध्यान नहीं देता कि मेरे मध्य में वडवानल धधक रहा है (क्योंकि उसे अपनी अपार जलराशि के समक्ष वडवानल नगण्य प्रतीत होता है)। अतः उन दोनों का सम्बन्ध संसार में सभी प्राणियों को जीत लेता है (उनके सम्बन्ध की तुलना नहीं है) ॥७॥
७६--गुणवज्जा (गुण-पद्धति) ६८५. यदि गुण नहीं, तो कुल से क्या ? गुणवान् के कुल से क्या प्रयोजन ? जो गुणहोन हैं, पवित्र कुल, उसके लिये भारी कलंक ही है ॥१॥
६८६. जो पुरुष गुणहीन होकर भी, कुल पर गर्व करते हैं, वे मूढ हैं । धनुष वंश (उत्तम कुल और बाँस) में उत्पन्न होता है, फिर भी गुणरहित (प्रत्यंचा और गुण) होने पर टंकार नहीं होती (उसका तेज नहीं प्रकट होता) ॥२॥
६८७. मनुष्य को उत्तम कुल में जन्म लेने से नहीं, बहुत से गुणों को धारण करने से महत्त्व प्राप्त होता है। मुक्ताहल ही महान् होता है (बहुमूल्य होता है), सीपी नहीं ॥ ३॥
६८८. शुक्ति-सम्पुट कितना परुष होता है, परन्तु उससे उत्पन्न होने वाला रत्न (मोती) अमूल्य होता है। जन्म से क्या होता है, गुणों से दोष मिट जाते हैं ।। ४॥
* विशेष विवरण परिशिष्ट 'ख' में द्रष्टव्य ।
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