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वज्जालग्ग
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. ६८९. गुणों और वैभवों के बीच के भारी अन्तर को जो लोग जानते हैं, उसे कहते हैं-गुणों से वैभव (ऐश्वर्य या धन) मिल सकता है, परन्तु वैभवों से गुण नहीं मिल सकते ॥ ५ ॥
६९०. स्थान गुणों से मिलता है, अतः गुण अवश्य ग्रहण करना चाहिये । हार भी गुणरहित (सूत्रहीन) होने पर तरुणियों के स्तन-पृष्ठ पर स्थान नहीं पाता ॥६॥
६९१. गुणवान् पार्श्व में स्थित होने पर भी गुणहीन का क्या उपकार कर सकता है ? जन्मान्ध के हाथ में दिया हुआ दीपक निष्फल ही है॥७॥
६९२. जिनके गुणों के बल से वंश में उत्पन्न होने वाले लोग जीवित रहते हैं, वे सत्पुरुष परलोक चले जाते हैं, तब भी पश्चात्ताप नहीं होता ॥ ८॥
७७-गुणणिदावज्जा (गुणनिन्दा-पद्धति) *६९३. सेवक छिद्ररहित मुक्ताहल के समान उस गुणवान् प्रभु का क्या करे (अर्थात् उसकी कौन सी सेवा करे), जो उस (सेवक) के गुणों को भूल गया है (या जानता ही नहीं या जिस पर सेवक के गुणों का कोई प्रभाव ही नहीं पड़ता है)। जहाँ सूई का प्रवेश नहीं होता (अर्थात् छिद्र रहित मुक्ताहल में), वहाँ सूत (गुण) बाहर ही रह जाते हैं। अन्यार्थजहाँ तालिका (फेहरिस्त) का प्रवेश नहीं होता (अर्थात् तालिका नहीं सामने लाई जाती), वहाँ गुण (अच्छाईयाँ) बाहर ही रह जाते हैं (उपेक्षित रह जाते हैं) ॥१॥
६९४. जब प्रिय के साथ संगम-क्रीडा करते समय सुन्दरी ने अपना हार उतार दिया, तब उसने सोचा-अनवसर पर गुणवान् (सूत्रयुक्त और गुणयुक्त) भी दूर हटा दिये जाते हैं ॥२॥
* विशेष विवरण परिशिष्ट 'ख' में द्रष्टव्य ।
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