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वज्जालग्ग
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३५८. पुत्रि! मान मत करो। प्रेमी हृदय से निष्ठुर स्वभाव का है। कंदली (अंकुर) के समान शीघ्र टूट जाने पर प्रेम फिर जुड़ता नहीं ॥९॥
३५९. जो स्नेह के सुदृढ़ नाल पर स्थित है, सद्भाव की पंखड़ियों से जो महकता है, उस प्रेमोत्पल का मान रूपी तुषार ही विनाशक है ॥ १०॥
३६०. जिसमें मदिरा प्रिय लगती है, वह शरद् ऋतु जब तक बीत नहीं जाती, तब तक मान छोड़ दो और प्रिय का सत्कार करो। शरद् ऋतु में बिना पुण्य के किसे मदिरा और सुरत सुलभ होते हैं ? ॥ ११ ॥
३६१. उसने जो ऊँचा, स्थिर और विशाल मान का पर्वत बनाया था, उस पर प्रेमी के दृष्टि-वज्र के प्रहार का अवसर ही नहीं आया ॥१२॥
३६२. जब प्रिय चरणों पर गिर पड़ा, तब भी उसकी गणना नहीं की, जब प्रिय बोलने लगा, तब भी कटु बातें कहीं और जब जाने लगा, तब भी नहीं रोका, बताओ ! मान ही किस लिये किया था ? ॥ १३ ॥
३६३. जो विरह-वेदना का कष्ट समझता है, मान उसके प्रति किया जाता है। जिसमें कोई विशेषता (सुख या दुःख की) ही नहीं है, उस नीरस पाषाण के प्रति मान क्यों कर रही हो ? ॥ १४ ॥
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