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३७६. उनके बिना आज ही ये रक्त, श्वेत और कृष्ण आंखें जात्यन्ध मौक्तिक के समान दिशाओं में लुढ़क रही हैं ( जात्यन्ध मौक्तिकों को कोई नहीं पूछता है ) || ३ ॥
वज्जालग्ग
३७७. आज चले गये, आज चले गये, वे आज चले गये - इस प्रकार लिखने वाली नायिका ने ( वियोग के) पहले आधे दिन में ही सम्पूर्ण भित्ति रेखाओं से चित्रित कर डाली ॥ ४ ॥
३७८. जब नायिका प्रियतम के आगमन के दिन की गणना कर के दीवार पर रेखायें खीचती थी, तब उसकी सखियां, 'अवधि का दिन कहीं आ न जाय' - इस आशका से दो-तीन रेखायें छिप कर पोंछ देती थीं (यदि कहीं अवधि का दिन आ जायगा तो यह हर्षातिरेक से ही मर जायगी अथवा सखियां समझती थीं कि नायक निश्चित समय पर नहीं लौट पायेगा | अवधि का दिन कहीं आ न जाय और यह मर न जाय, इसलिये चुपके से दो-तीन रेखायें पोंछ दिया करती थीं) ॥ ५ ॥
३७९. प्रियतम कब गये ? पुत्रि ! आज । कितने दिनों का आज होता है ? एक । अरे इतना बड़ा एक दिन होता है—यह कह कर वह बाला मूच्छित हो गई || ६ ||
३८०. जैसे फूटी सीपी का एक भाग दूसरे भाग से फिर नहीं जुड़ सकता वैसे ही कभी-कभी विरहणियां जब जीवित रह जाती हैं, तब उन का प्रेमी कुछ ऐसे कुमुहूर्त में लौटता है, जब मेल नहीं होता ॥ ७ ॥
३८१. अरे ! मन्दर के समान विरह ने क्षीर सागर के समान हमारे हृदय को मथ कर रत्नों के समान सुखों को निकाल लिया' ॥ ८ ॥
१ मह हिययं रयणनिहि, महियं गुरुमंदरेण तं णिच्चं । उम्मूलियं असेसं, सुहरयणं कड्ढियं च तुह पिम् ॥
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प्रेम अमि मन्दरु विरह, भरत पयोधि गम्भीर | मथि काढेउ सुरसन्त हित, कृपासिंधु रघुवीर ॥
— सन्देश रासक,
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- रामचरितमानस, अयोध्याकाण्ड, दो० २३८
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