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वज्जालग्ग
१५७ *४६०. जो परदेशी प्रिय की मृत्यु का समाचार नहीं जानती थी वह गृहिणी जब प्रतिदिन वेणी बाँधकर कौआ उड़ाने लगती, तब सारे गाँव को रुला देती थी ॥६॥
४६१. (वह) बालकों के खाने से जो बचता, उसे स्वयं भूख से पीड़ित होने पर भी दु-खियों को दे देती थी । बेचारी दरिद्र गृहिणियाँ कुल गौरव से क्षीण होती रहती हैं ।। ७ ।।
४६२. अपने आभिजात्य पर गर्व करने वाले पति की मर्यादा की रक्षा करती हुई गृहिणी ठाट-बाट से आने वाले नैहर के लोगों पर क्रुद्ध हो जाती थी ।। ८॥
४९-सई-वज्जा (सती-पद्धति) ४६३. जो मेरे पति की कामना न करती हो वह स्त्री ऊँगली ऊपर उठाये और वह युवक बोले, जिस की ओर मैंने दष्टि भी डाली हो ॥ १ ॥
४६४. गृहिणी चौराहे पर रहती है, देखने में सुन्दर है, तरुणी है, पति-प्रवास में है, पड़ोसिन व्यभिचारिणी है, दरिद्र भी है, फिर भी शील अखंडित है ॥ २॥
४६५. देवर का मन दूषित हो जाने पर भी वह मुग्धा कुटुम्बविघटन के भय से अपने क्रोधी पति को नहीं बताती थी, दुर्बल होती जा रही थी ॥३॥
१. जिस का पति दूर प्रवास में था, युग बीत गये फिर भी नहीं आया ।
विधवा अब हो चुकी थी जो परन्तु, जो कुटुम्बियों ने उससे था छिपाया। जिसने वर वेणी सजा कर भाल में, आज सुहाग का बिन्दु बनाया ।
गृह भाग से काग उड़ाती हुई, उस कामिनी ने किस को न रुलाया ।। * विशेष विवरण परिशिष्ट 'ख' में द्रष्टव्य ।
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