________________
वज्जालग्ग
१६७
४९०. अरे दोनों हाथों में कालिख भरकर शीघ्र दौड़ो। व्यभिचारिणियों का दूषक चन्द्रमा कुएँ में गिरा हुआ दिखाई पड़ा है ।। १९ ।। __४९१. अरे पथिक ! मेरे निकट क्यों आते हो ? यदि मेरे नितम्बों से वस्त्र उतार लोगे, तो मैं किससे कहूँगी ? क्यों कि गाँव दूर है और मैं अकेली हूँ ।। २० ॥
४९२. सास अन्धी-बहरी है, गाँव नाना प्रकार से विवाह में व्यस्त है, मेरा पति परदेश में है । तुम्हें रैन-बसेरा कौन दे ? ॥ २० ॥
४९३. पथिक ! यह स्थान जन-संकुल है, सूनसान नहीं है। सास रुष्ट होती है, सोने का स्थान नहीं देती। अतः चले जाओ, यहाँ मेरे घर में रैन-बसेरा मत माँगों ॥ २२॥
२९४. पथिक ! हम ग्रामीणों के घर में बिछौना कैसे मिल पायेगा ? (पक्ष में स्वस्थ-रत कैसे मिल पायेगा)। उठे हए पयोधरों (मेघों) को देखकर यदि रहते हो तो रहो' (पक्ष में-उठे हुए उरोजों के देख कर यदि रुकना चाहते हो तो रुक जाओ) ।। २३ ।।
४९५. अरे बटोही ! आँगन (बाह्य प्रांगण) में ही टिक जाओ | तुम्हें ओढ़ने की चिन्ता नहीं करनी है। केवल इसी एक गाँव में हेमन्त ग्रीष्म के समान है ।। २४ ।।
१. इस गाथा का पाठ गाहा-सत्तसई में कुछ भिन्न है जिसका भावानुवाद
मैंने इस प्रकार किया हैथके होगे बटोही मैं जानती हूँ, बढ़ के किसी ठौर थकान मिटाओ। इन पत्थरों से भरे बीहड़ गांव में, वास की आस न लेकर आओ। यहाँ है न बिछोने का कोई प्रबन्ध, रसोई का भी न प्रसंग चलाओ । उठते हुये देख पयोधरों को यदि, चाहो तो रात भले टिक जाओ । आँगन में ही मिला यदि ठौर, तो क्या परवाह वहीं टिक जाओ। छोड़ दो कंबल की चरचा, न बटोही अलाव का नाम सुनओ। दूसरे गाँव की बात ही और है, सोच उसे न खड़े पछताओ। जेठ-समान है पूस यहाँ, न डरो तुम चैन से रैन बिताओ ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org