________________
धज्जालग्ग
५४१. हे सखियों ! मैं सौ बार पूरे गाँव में देर तक भटक चुकी, घर की ओखली के नाप का मुसल ही नहीं दिखायी दिया ॥ ४ ॥
५४२. जिनका अग्रभाग सुन्दर मण्डन से युक्त है, जो थोड़े मोटे हैं और सुन्दर काञ्ची (सेम) से सुशोभित होते हैं, वे दूसरों के मुसल भी मुझे पसन्द हैं। अतः (ढूँढने) जाते हैं ।। ५ ।।
५७-बाला-संवरण-वज्जा (बाला-संवरण-पद्धति) ५४३. पुत्रि ! जिस पर तुम अनुरक्त हो, वह तुमसे प्रेम नहीं करता। विशालाक्षि ! एक हाथ से ताली नहीं बजती है ॥ १ ॥
५४४. श्यामे ! सिंह चाहे जहाँ चला जाय, हल में नहीं जोता जाता है। सत्पुरुष भी वैसे ही है, आँखें पोंछ लो, मत रोओ ॥ २॥
५४५. तू उस समय रोकने पर भीगो आँखों से प्रियतम के सौन्दर्य को पी रही थी। इस समय विरहावस्था को वहन करती हुई क्लेश उठायेगी ॥३॥
५४६. पुत्रि! छेकों (विदग्धों या चतुरों) के आगे रोओ मत, तुम्हारी आँखें दुखने लगेंगी. परन्तु उनका मन दुःखी न होगा, जैसे जल-प्लावन से पर्वत क्षीण नहीं होता ।। ४ ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org