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वज्जालन्ग
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३६४. पुत्रि ! रात्रि-जागरण, दुर्बलता, शरीर-शोषण, चिरकाल तक रोदन, इन सभी (संकटों) को मन में सोच कर ही मान करना चाहिये ।। १५ ॥
३८-पवसिय-वज्जा (प्रोषित-पद्धति) ३६५. सुनती हूँ, कल निष्ठुर-हृदय प्रिय परदेश चला जायगा। भगवति यामिनि ! (रात्रि) ऐसी बढ़ जाओ की सबेरा ही न हो ।। १ ॥
३६६. सुभग ! यदि जाते हो तो जाओ, तुम्हें जाने से रोकता कौन है ? तुम्हारा प्रस्थान और मेरा मरण, यह प्रशस्ति (लेख) काल ने लिख दी है ॥२॥
३६७. यदि जाते हो तो जाओ, अब आलिंगन की आवश्यकता नहीं है। मृतकों को छूने से प्रवास-यात्रियों का अमंगल होता है ॥ ३ ॥
३६८. मेरे हृदय में रहकर आज जोव लेकर जा रहे हो। अरे सहवास-गृह की विडम्बना करने वाले ! गंगा में जाकर भी शुद्ध नहीं होगे ॥४॥
*३६९. यदि जाते हो तो जाओ, जो तुम्हारे वियोग में जीता है. उस देह को (या जीव को) मैं पहले ही त्याग दे रही हूँ ॥ ५ ॥
* विशेष विवरण परिशिष्ट 'ख' में द्रष्टव्य ।
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