SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 196
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वज्जालन्ग १२१ ३५२. हे दयिते (प्रिये) ! प्रसन्न हो जाओ (या पसीज जाओ), मान त्याग कर परितोष कर लो, अब प्रभात-कालिक कुक्कुट का स्वर सुनाई दे रहा है ॥ ३॥ ३५३. जिसके वियोग में नींद चली जाती है, शरीर पीला पड़ जाता है और लम्बी साँसें लेनी पड़ती हैं, उसके साथ मान कैसा ? ॥४॥ ३५४. हे पुत्रि ! जब यौवन नदी के प्रवाह के समान है, दिन नित्य गतिशील हैं और रातें फिर नहीं लौटती, तब फिर यह दग्ध मान किस लिये करती हो? ॥ ५ ॥ ३५५. जिससे मान किया जाता है, वह प्रिय कहाँ से हो सकता है अथवा जिससे प्रेम है, उससे मान ही कैसा ? मानिनि ! एक ही खम्भे में दो हाथी नहीं बाँधे जाते ॥ ६ ॥ ३५६. मानिनि ! मान छोड़ दो। यद्यपि तुम्हारा स्वामी भली प्रकार तुम से प्रेम करता है, फिर भी आवश्यकता वश ढेकुली ही झुकती है, कुआँ नहीं झुकता है ॥ ७ ॥ ३५७. मुग्धे ! वसन्त-मास में मान का अवलम्बन कर मर जाओगी। मान फिर कर लेना, उत्सव के दिन दुर्लभ हैं ।। ८ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy