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वज्जालग्ग
२५०. मालती की शाखा की पत्तियाँ झड़ जाने पर भी, गन्ध न रह जाने पर भी, रस-हीन हो जाने पर भी, पहली बार की रसानुभूति का स्मरण करने वाले भ्रमरों ने उसे नहीं छोड़ा ।। १५ ।।
२५१. मालती की शाखा में पत्र और पुष्प न रह जाने पर भी किंचित् विकसित कलिका की सुगन्ध को याद रखने वाले भ्रमरों ने उसे नहीं छोड़ा ।। १६ ।।
२५२. जो कसी हुई पंखड़ियों वाली कली को विशेष रूप से खिला कर प्रथम उस का रस-पान करते हैं, वे भ्रमर विदग्ध (चतुर) हैं ॥ १७ ॥
___ २७–सुरतरुविसेसवज्जा (सुर-तरु-विशेष-पद्धति) २५३. अरे भ्रमर ! स्वर्गलोक में रह कर और पारिजात का सौरभ प्राप्त करके भी मदार के फूलों को चूमते तुझे लज्जा नहीं आती ॥१॥
२५४. पारिजात की मंजरियों से जिसका हृदय आनन्दित हो चुका है, उस विदग्ध भ्रमर की इच्छा लौंग की कली कहाँ से पूर्ण कर सकती है ? ॥ २॥
२५५. *भ्रमर ! क्या तुमने अनेक वनों, गहरों और गृहों में भ्रमण करके पारिजात के समान किसी वृक्ष को कहीं भी देखा-सुना है ? ॥ ३ ॥
* विशेष विवरण परिशिष्ट 'ख' में द्रष्टव्य ।
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