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वज्जालग्ग
१११ ३२२. अरे! मध्यरात्रि में नाना करणों से होने वाली प्रगाढ़ रति को देखकर पवनाहत दीपक मानों विस्मय से शिर हिला रहा है ।। ४ ॥
३२३. जिसमें आघात से पतनशील कंकणों की ध्वनि हो रही थी और जो नखों और दन्तों के क्षतों से सनाथ थी, वह रति-लीला कुछ ऐसी लगी जैसे जंगली सिंहों का युद्ध हुआ हो क्योंकि उसमें भी परस्पर आक्रमण करने पर प्रचण्ड गर्जन-शब्द होता है और दाँतों एवं पंजों से घाव हो जाते हैं ।। ५ ॥
३२४. अहा ! विपरीत-रति करती हुई प्रौढ महिला के हाथों के आघात से चंचल हो जाने वाले कंकण और (कटि की चंचलता के कारण) कणित होने वाली किंकिणी के शब्द सुनाई दे रहे हैं ॥ ६ ॥
३२५. प्रथम समागम में सुरत-सुख प्राप्त कर भी उतना सन्तोष न हआ, जितना दूसरे दिन सलज्ज दिखाई देने वाले (प्रिया के) मुख-पंकज को देख कर ॥ ७॥
३२६. जहाँ प्रेमी को शीघ्रता पूर्वक जघन समर्पित कर देने के कारण (या पति को अपना शरीर समर्पित कर देने के कारण) कंकण बज उठते हैं और किंकिणी क्वणित हो जाती है तथा धीमी सीत्कार (सी-सो शब्द) होने लगती है, उन कुलवधुओं की रति में सभी सुखों का समुदाय मिलता है ॥ ८॥
३२७. कंचन-कांची झनझना रही है, हार टूट रहा है और रत्न गिर रहे हैं--प्रौढ महिला ने तो कौरवों और पाण्डवों का संग्राम प्रारंभ कर दिया है ॥९॥
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