________________
वज्जालग्ग
११७
३४०. दूर चले जाने पर भी, अप्रिय करने पर भी, अन्य से प्रेम जोड़ लेने पर भी, जहाँ मन नहीं फिरता, वहीं प्रेम है, शेष तो परिचय मात्र है ॥ १२ ॥
३४१. मनसा, वाचा और कर्मणा जिसका कोई भी प्रेमी नहीं है, वही सुख से सोता है, वही दुःख-रहित है और उसी के पास सैकड़ों सुखों की निधि है ।। १३ ॥
___३४२. भू-मण्डल में कोई बताये तो भला कि चाटुकारिता-रूपो खर-पवन से प्रेरित दावाग्नि के समान उस प्रणय ने किसे नहीं भरमाया ? ॥ १४ ॥
३४३. हे श्यामलांगि ! इस दग्ध लोक में कोई भी ऐसा नहीं दिखाई देता, जिसके दिन किसी को हृदय अर्पित कर देने पर सुख से बीतते हों ॥ १५ ॥
३४४. जैसे जहाज का पक्षो इधर-उधर सर्वत्र आकाश में भ्रमण कर कहीं स्थान न पाकर वहीं लौट आता है, वैसे ही सर्वत्र शून्य में भ्रमण कर फिर उसी स्थान पर आकर टिक जाने वाले प्रेम ने मुझे उपहास्य बना दिया ॥ १६ ॥
३४५. जब मान चला जाता है, स्नेह नष्ट हो जाता है, सद्भाव नहीं रह जाता, तब केवल अभ्यर्थना से होने वाला प्रेम कैसा होता होगा ? ॥ १७ ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org